Saturday, February 19, 2011


गांधी जी की पूछ आज ज्यादा है

मोहन दास करमचंद गांधी जिन्हें हम गांधी और बापू के नाम से भी जानते हैं, की पूछ शायद आजादी के लिए उतनी नहीं रही होगी जितनी आज आजादी के बाद है। आप सोच रहे होंगे कि मैं यह क्या कह रहा हूं। तो मैं आपको बता दंू कि मैं आज के गांधी जी यानिकि रुपए की बात कर रहा हूं। आज गांधी और उनकी कही बातेें तो किसी को याद तो नहीं हैं लेकिन रुपए के लिए सब पागल हैं। चाहे वह जैसे भी आए, आना चाहिए। क्योंकि रुपए तो रुपए होते हैं। इस जन्मजात बीमारी से आम जनता और यकीन्न हमा राजनेता भी ग्रसित हैं। तभी तो आए दिन कोई न कोई  ोटाला सामने आ रहा है। शुरुआत राष्ट्रमंडल खेल  ोटले से हुई। इसके बाद तो जैसे  ोटाले उजागर होने का दौर ही शुुरु हो गया हो। २जी स्पेक्ट्रम, आर्दश सोसायटी और न जाने कितने ही इस कतार में अपना नाम गिने जाने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। लेकिन मैं उनका नाम लेकर उनकी शाने चार चांद नहीं लगाना चाहता।
बात यहां रुपए की प्रभुत्व की और भी पुख्ता हो जाती है कि प्रधानमंत्री तक खुद को इसके आगे बेबस बताते हैं। इलेक्ट्रानिक मीडिया के संपादकों के साथ हुई बैठक से इस बात को और बल मिलता है। बैठक में प्रधानमंत्री ने साफ तौर पर कहा कि वे बेबस हैं। गठबंधन सरकार की कुछ मजबूरियां होती हैं। इनके अंदर रह कर ही सरका को काम करना होता है। 
चलो यह सब तो राजनीतिक बातें थी। सरकार के मन में क्या है यह जग जाहिर है। सरकार किसी भी तरह अपनी कुर्सी बचाना चाहती है। इसमें प्रधानमंत्री भी पीछे नहीं हैं। वह भी अपनी कुर्सी और उसके जाने के बाद का प्रबंध कर लेना चाहते हैं। इसके लिए उनके पास मात्र तीन वर्षों का समय शेष है। इसी लिए वह ऐसे बयान दे रहे हैं। लेकिन सोचने वाली बात है कि आखिर क्या वजह है कि इस सरकार के दौरान इतने सा  ोटाले हुए और वह भी इतनी आसानी से। इस सवाल के जावाब में अगर केंद्र सरकार यह कहे कि उसके पास इस सवाल का जवाब नहीं है तो मैं यह ही कूंगा कि यह बात कुछ हजम नहीं हुई। ऐसा हो ही नहीं सकता कि नेता सरकार के नाक के नीचे से उसकी मंूछ काट कर ले जाए और सरकार को पता ही न चले। शक यह भी होता है कि कहीं इन सब में सरकार भी बराब की भागेदार है। यह सवाल मे मन में ही नहीं बल्कि पू भारतवासियों के मन में उठ रहा होगा। इस सवाल का जवाब किसी बे़ से पूछने पर तो आसानी से मिल ही जाएगा। लेकिन आज कि माहौल में इस सवाल का जवाब एक बच्चा भी दे देगा क्योंकि उसे यह पता है कि जनता के साथ होने का दम भरने वालों का असली चेहरा क्या है। सरकार के लिए इज्जत कितनी है एक गरीब से बेहतर कोई नहीं बता पाएगा क्योंकि इस र्दद हो वह ही समझ सकता है जो रातों को पेट अपनी पीठ से जो कर सोता है। दलितों के  रों में जा कर राजनीति करने से यह बात छिप नहीं जाती। 
आज गांधी की उपयोगिता इतनी ज्यादा है कि कोई बिगत़ा काम इसके प्रयोग से आसानी से बन सकता है। इसका जीवंत उदाहरण नीरा राडिया और बे़ उद्योग  रानों के लिए हुई लॉबिंग से लगा सकते हैं। यह सिर्फ बे़ स्तर पर ही नहीं बल्कि छोटे स्तर पर भी शुरु हो जाता है। चाहे वह एक सरकारह दफतर का प्यून की क्यों न हो। चाय पानी की मांग तो जैसे उसका जन्मसिद्ध अधिकार है। इन सब बातों कोच कर गुस्सा आता है लेकिन यह सोच कर खुद ही चुप हो जाता ूं कि यहां पर कुछ  तक कुछ नहीं हो सकता जब तक हम नकली गांधी जगह असली गांधी को नहीं देेते।


Wednesday, February 16, 2011


प्रधानमंत्री के बयान पर अफसोस होता है!

देश में बढ़ते •ा्रष्टाचार को लेकर केंद्र सरकार हर तरफ से घिरती दिखाई दे रही है। एक तरफ विपक्ष और वामदल तो दूसरी तरफ देश की करोड़ से •ाी अधिक की जनता। जिसकी उम्मीदों पर आघात ख्ुाद केंद्र सरकार ने ही किया है। आसमान में उड़ती सरकार जमीन पर तो आनी ही थी। हुआ •ाी यही। अपने सरकार के बचाव में प्रधानमंत्री खुद सामने आए। या यूं कहें कि प्रधानमंत्री को तुरुप के इक्के की तरह •ोजा गया।
प्रधानमंत्री आए और मीडिया के सामने अपने हार और लाचारी की दास्तान परोस दी। प्रधानमंत्री ने कहा कि गठबंधन सरकार की कुछ मजबूरियां होती हैं। केंद्र सरकार •ाी कुछ ऐसी ही स्थिति से गुजर रही है। पूर्व टेलिकॉम मंत्री ए राजा कांग्रेस की नहीं डीएमके के खास थे। डीएमके के सुझाव पर ही राजा को टेलिकॉम मंत्री बनाया गया था। इन विरोधा•ाासी बयानों के बाद लागों की प्रतिक्रियाएं आनी तो स्व•ााविक थीं। ऐसा हुआ •ाी। कुछ ने प्रधानमंत्री को धृतराष्ट्र बोल डाला तो कुछ ने उनसे इस्तीफे की मांग कर डाली। आखिर हो •ाी क्यों न, उन्होंने •ाी कई बार बच्चों की तरह बायान दिये जिससे लोगों की •ाावनाए तो आहत हुई ही, विरोधियों को राजनीति करने का एक और बना बनाया मुद्दा मिल गया। जिस पर राजनीति •ाी उम्मीद के मुताबिक देखने को मिली। 
इन सब के बाद •ाी प्रधानमंत्री के झुकी हुई रीढ़ वाले नेताओं सरीके बयान ने कुछ सवाल खडेÞ कर दिये। इनका जवाब होने पर •ाी शायद प्रधानमंत्री देना नहीं चाहेंगे। सवाल जैसे क्या गठबंधन सरकार की मजबूरी के नाम पर •ा्रष्टाचार को जायज ठहराया जा सकता है? क्या प्रधानमंत्री की बात का यह मतलब निकाला जाना चाहिए कि उन्होंने एक तरह से यह साफ कर दिया है कि इस सरकार के रहते •ा्रष्टाचार को रोकना सं•ाव नहीं है? क्या प्रधानमंत्री ने घोटालों का दोष जनता पर ही मढ़ दिया है, क्योंकि  जनता ने कांग्रेस को पूर्ण बहुमत से सत्ता में नहीं लौटाया? और सबसे अंत में सबसे जरूरी सवाल कि क्या प्रधानमंत्री अपनी जिम्मेदारियों से बच सकते हैं?
अगर इन सवालों का जवाब देश की आम जनता जो रोज दो वक्त की रोटी के लिए •ाागती दौड़ती है तो जवाब सबको पता है क्या मिलेगा। हमारी सरकार को यह सोचने की आवश्यक्ता है कि क्या सरकार को सोचने की जब हर जगह सरकार की मट्टी पलीत हो रही है तब उसे क्या करना चाहिए? वह काम जो वहा अब तक करती आई है या वह काम जिसके लिए देश की जनता ने उसे चुना था?