Thursday, December 16, 2010

उत्तर प््रादेश: अनाज घोटाला

लगता है जैसे कि देश में घोटालों के उजागर होने की हवा चली है। रोज नित नये घोटालों का उजागर होना जहां एक तरफ इस बात को हवा दे रहा है की देश में भ्रष्टाचार रोज नयी ऊंचाईयां छू रहा है, जिसने सरकारी दावों की कलई खोल कर रख दी है वहीं दूसरी तरफ यह भी साबित कर दिया है कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में एक आम आदमी की दशा क्या है?

जहां एक ओर लोकतंत्र विफल होता दिख रहा है वहीं दूसरी ओर मीडिया की सामाजिक भागीदारी भी सामने आ रही है। २ जी स्पेक्ट्रम आबंटन घोटाले के बाद मीडिया के ही माध्ययम से अभी तक का देश का सबसे बड़ा घोटाला सामने आया है। यह घोटाला मायावती शासित उत्तर प्रदेश में किया गया जिसकी रकम २ लाख करोड़ बतायी जा रही है। प्रदेश के बट्टेदारों, नौकरशाहों और सफेद पोशों नेताओं ने केन्द्र द्वारा सरकारी स्कीमों:- जवाहर रोजगार योजना, मिड डे मील और बी० पी० एल० के तहत दिये गये अनाज को न सिर्फ प्रदेश के बाहर बल्कि देश के बाहर नेपाल और बंग्लादेश में काला बाजारी कर मोटी मलाई काटी गई और अनाज के वास्तविक हकदारों को इसकी भनक तक नहीं होने दी।

स्पेशल इन्वेस्टीगेटिव टीम (एस० टी० आई०) और सी०बी०आई द्वारा की गई जांच में कई चौंेका देने वाले तथ्य सामने आये हैं। जैसे- अनाज की इस कालाबाजारी के लिये न र्सिफ ट्रकों बल्कि माल गाड़ियों का भी इस्तेमाल किया गया। जिन ट्रकों का इस्तेमाल हुआ उनके नंबर प्लेट फर्जी थे। जांच के तार कोलकाता के पी० के० एस० लिमिटेड कम्पनी तक भी पहुंचे जिससे साबित हुआ कि अमुख कंपनी ने इस पूरे घोटाले में प्रमुख भूमिका निभाई है।
जहां इसकी आंच प्रदेश विधान सभा तक पहूंची वहीं दूसरी तरफ देश की सबसे बड़ी पंचायत में भी इसकी गूंज बखूबी सुनाई पड़ी। इसके साथ ही जहां दानों पार्टीयों (बसपा और सपा) के नेताओं मायावती (र्वतमान मुख्य मंत्री- चौथी बार)और मुलायम सिह यादव (पूर्व मुख्स मंत्री- तीसरी बार) को सियासत खेलने का एक और मुद्दा मिल गया है वहीं उत्तर प्रदेश में सरकारी तंत्र की कलइ्रर् खोल कर रख दी है। वास्तविक्ता तो यह है कि वर्ष २००२-०७ के पांच वर्षों के अंतराल में दोनों ही मंत्रीयों ने प्रदेश के मुख्य मंत्री का कार्यभार सम्भाला था। ३ मई २००२ से २९ अगस्त २००३ में मायावती तीसरी बार मुख्य मंत्री बनीं तो वहीं २९ अगस्त २००३ से १० मई २००७ तक मुलायम सिंह यादव तीसरी बार मुख्य मंत्री के पद पर बैठे थे और पुन: १३ मई २००७ से अब तक मायावती प्रदेश की मुख्य मंत्री बनी हुई हैं।

अनाज की बोरियों में बंद इस घोटाले ने जहां एक तरफ यह साबित किया है कि प्रदेश सरकारें गरीबों के हितों का कितना ध्यान रखते हैं वहीं यह भी सिद्ध किया है कि नेता और नौकरशाह अपने व्यक्तिगत लाभ के लिये कितने नीचे गिर सकते हैं। इस पूरे मामले की जांच हाई कोर्ट के निर्देष पर सी०बी०आई द्वारा कि गयी जो कि पहले सुविधाओं की कमी का हवाला देते हुए पूरे मामले से पल्ला झाड़ने की कोशिश कर रही थी। लेकिन इस घोटाले में कौन कौन शामिल हैं उनके नाम अभी सामने नहीं आ पाये हैं। लिहाजा जांच एजेंसीयां अब भी वहीं पर खड़ी हैं जहां वह पहले दिन खड़ी थीं क्योंकि उनके पास सवाल तो कई हैं लेकिन जवाब एक भी नहीं सूझ रहा है। इन सवालों में से जो सबसे अहम सवाल है कि आखिर जांच शुरू की जाये तो कहां से? उत्तर प्रदेश में कुल ७० जिले हैं और अभी तक जो कुछ भी सामने आया है वह सिर्फ ४० जिलों का काला चिट्ठा है, यानी कि अभी ३० जिले जांच की जद में नहीं आये हैं।

वर्ष २००६ में मुलायम सिंह द्वारा ई० ओ० डब्लू (इकोनॉमिक ऑफिस विंग) से कसई जांच में र्सिफ बलिया जिले में ही ५० केस र्दज किये गये थे। जैसे जैसे जांच आगे बढ़ेगी वैसे इस सम्भावना को और बल मिलता जायेगा कि घोटाले की यह रकम अभी और बढ़ सकती है। वैसे यह भी बताते चलें कि देश का दामन काफी पहले से घोटालों के दागों से दागदार होता रहा है। चाहे वह २ जी स्पेक्ट्रम आबंटन का घोटाला हो या फिर शहीदों के लिये बने मकानों वाला आर्दश सोसाईटी घोटाला या राष्ट्रमण्ड खेल घोटाला या कॉफिन घोटाला या फिर बोर्फोस घोटाला, इन सभी दो बातें सिद्ध की है। पहला यह कि इनकी संख्या इतनी है कि शायद आप अपनी अंगुलियों पर भी गिन न पायें और दूसरी कि हमारे देश में भ्रष्टाचार पिछले दशकों की अपेक्षा बढ़ी है।

Monday, November 29, 2010

क्या हमने भ्रश्टाचार को अपना लिया है?

क्या हमने भ्रश्टाचार को अपना लिया है, सवाल छोटा मगर बेहद जटिल और हमारी समाजिक जड़ों को हिलाने वाला है। आप भले ही इसे झूठ कहें लेकिन वास्तविक्ता तो यही है कि हमने भ्रश्टाचार को अपने जिन्दगी में अपना लिया है और अब हमारा प्रतिक्रिया इसके प्रति उतनी सजग नहीं रही जितनी की एक द ाक पहले हुआ करती थी। कहा जा सकता है कि हम अब परिपक्व हो गये हैं। हमारे अंदर यह परिपक्वता भाायद इस लिये भी आ गई है क्यों कि हम भ्रश्टाचार के आदि हो चुके हैंं। अभी हाल की ही बात ले लीजिये, कुछ ही दिनों पहले कॉमनवेल्थ खेलों से जुड़े भ्रश्टाचार के मामले का हल सरकार निकाल ही नहीं पायी थी कि उसके बाद आर्द ा सोसाइटि घोटाला, २ जी स्पेक्ट्रम घोटाला सामने आ गया। र्वतमान हालात को देखते हुए ऐसा लगता है कि जैसे घोटालों का परदाफा ा करने के लिये एक बयार सी चली हो जो सारे घोटालों की परते उधेड़ती जा रही है।
लेकिन अगर भ्रश्टाचार के प्रति हमारी उदासीनता का सकारात्मक पहलू देखें तो अब सरकारें इसके नाम पर वोटों की फसल नहीं काट सकती हैं। ऐसा इस लिये है क्यों कि हम वह भली भंती जान चुके हैं कि चाहे वह कोई भी पार्टी हो, उसके दामन भी भ्रश्टाचार के दागों से बचे नहीं हैं। आखिर कार चोर चोर मौसेरे भाई जो होते हैं।
खास बात यह है कि ये उदासीनता हमारे दो रवैयों को प्रस्तुत करती है। पहला यह कि अब हम भ्रश्टाचार से ऊब गये हैं क्यों कि हमने यह मान लिया है कि ऐसा तो होना ही है। दूसरा पहलू यह है कि हमारा मध्ययम वर्गीय समाज की दिलचस्पी राजनीति की ओर न हो कर अपने भविश्य, महंगाई और रोज मर्रा के कामों में भागते बीतती है। रही बात गरीब तबके की या उनकी जो गावों में रहते हैं, उन्हें तो चुनावों के दौरान कुछ रूपयों, उपहारों, भाराब की बोतलों और बिरयानी की पैकटों से आसानी से खरीदी जा सकता है और जो की असल जिन्दगी में किसी से छिपा नहीं है।
ल्ेिकन पूरे दे ा की जड़ों में आपनी पैठ बना चुकी इस भ्रश्टाचार के लिये हम सिर्फ सरकारों और न्यायिक प्रक्रिया को दोशी नहीं ठहराया जा सकता। वास्तविक्ता यह है कि हम भी इस भ्रश्टाचार के विस्तार में बराबर के दोशी हैं। हमने अपने और दूसरों के लिये भ्रश्टाचार की दो परिभाशाऐं, दो मानक बना रखें हैं। यदि भ्रश्टाचार से हमें फायदा हो रहा है तो वह सही है और भ्रश्टाचार नहीं है और कहीं अगर नुक्सान या गलत हो रहा हो तो वह भ्रश्टाचार है। फलस्वरूप हम उसके लिये हायतौबा मचाने लगते हैं।
विद्वानों के बीच में अरसे यह मुददा सुर्खियों में रहा है और इसके हल के लिये तीन उपाय सुझाये हैं जो कि मेरे विचार से व्यर्थ हैं। तीन में से एक तरीका जो सुझाया गया वह है 'सख्त कानून व्यवस्था और केसों का तेज निपटारा।` जहां यह सुझाव हमारी लोचपूर्ण और लचर न्याय व्यवस्था की ओर इ ाारा करता है वहीं एक सवाल भी खड़ा करता है कि जब र्वतमान परिपेक्ष में गवाहों और सबूतो को आसानी से खरीदा या मिटाया जा सकता है तो क्या यही केसों के तेज निपटारे के वक्त नहीं होगा? मुझे नहीं लगता कि यह कोई असम्भव कार्य है। दूसरा तरीका जो सुझाया गया वह यह कि सरकारी कार्यों में पारदि र्ाता का स्तर इतना बढ़ा दिया जाये कि सब कुछ लोगों की आंखों के सामने हो। मेरे विचार से भाायद इसी सुझाव पर काम करते हुए सरकार ने सूचना का अधिकार कानून को अस्तित्व में लाई थी जिसने सरकारी कार्यों में पारदि र्ाता का स्तर काफी बढ़ा दिया है। लेकिन वास्तविक्ता यह है कि यह अधिकार भी एक हद पर जा के समाप्त हो जाता है। तीसरा सुझाव था कि लोगों को भ्रश्टाचार के प्रति जागरूक बनाया जाये ताकि वे उसके खिलाफ उचित कदम उठा सकें। मैं अगर सही कहंू तो सबसे ज्यादा ना उम्मीद मुझे इसी सुझाव ने किया है क्योंकि जब हमने भश्टाचार को अपना रखा है तो उसे कैसे हटा सकते हैं। यह एक कटु सत्य है कि अपने अपने स्तर पर हम सभी भ्रश्ट हैं और उसे बढ़ावा देते हैं।
लेकिन जो सबसे डरावना पहलू है वह यह है कि जब किसी समाज में भ्रश्टाचार को अपने लिये जाता है तो उस समाज में भ्रश्टाचार की कोई सीमा नहीं रह जाती है और जिसे रोकना नामुमकिन हो जाता है। मेरा यह लेख सीधे तौर पर दे ा की एक भयावह चेहरा प्रस्तुत कर रहा है लेकिन वास्तविक्ता यही है।
बिहार का जनमत

अभी हाल ही में हुये बिहार विधान सभा चुनावों में नितीश कुमार और भाजपा गठबंधन ने दोबारा बाजी मार ली है। ऐेसा जनमत तो स्वभाविक था लेकिन लागों का इतना झुकाव और सर्मथन का सपना तो नितीश ने भी नहीं देखा होगा और इसमें कोई शक नहीं कि दोनों ही खुशी से फूले नहीं समा रहे होंगे। ऐसा होना भी चाहिये था क्योंकि बिहार में नितीश ने वो कर के दिखाया था जो कि प्रदेश के इतिहास में कभी नहीं हुआ। हां लालू प्रसाद यादव और राबड़ी देवी के वक्त बिहार आगे तो नहीं आया लेकिन १५-२० साल पीछे जरूर चला गया। एक वक्त था जब बिहार में यह कहावत प्रचलित थी 'जब तक रहेगा समोसे में आलू तब तक रहेगा बिहार में लालू।` आज समोसे में आलू तो है लेकिन बिहार में लालू नहीं। पिछली बार की तरह इस बार भी चुनावों में लालू प्रसाद यादव को मुंह की खानी पड़ी लेकिन यह कहना गलत नहीं होगा कि पिछली बार तो कम लेकिन इस बार कहीं ज्यादा खानी पड़ी है।
बिहार में राजनीतिक समीकरणों के बदलने की वजह साफ है, अब बिहार की जनता उन्नती चाहती है। अब उसे और बरगलाना किसी भी राजनीतिक पार्टी के लिये आसान न होगा जो कि इस बार के जनाधार से साफ हो गया है। बिहार की जनता का यह स्भाव स्भाविक भी है, जब सब आगे बढ़ रहे हैं तो बिहार आखिर पिछड़ेपन की मार कब तक झेलता रहेगा? कब तक उसके साथ सौतेलों सरीके व्याहार होता रहेगा? बिहार के पिछड़ेपन की गवाही सिर्फ लोग ही नहीं बल्कि आंकड़े भी कुछ इसी ओर ईशारा करते हैं। चाहे वह शिक्षा का क्षेत्र हो या फिर कोई और, बिहार अन्य राज्यों की तुलना में काफी पीछे खड़ा नजर आता है। अगर प्रति व्यक्ति आय की बात की जाये तो पूरे देश की प्रति व्यक्ति आय जहां ४० से ५० हजार सालाना के बीच है वहीं बिहार की १३ हजार से कुछ अधिक पर दम तोड़ देती है।
अगर बिहार और उसके लोगों के साथ हुए सौतेलेपन की बात करें तो दोनों ही राजनीतिक और व्यक्तिगत तौर पर बिहार के साथ काफी अन्याय हुआ है। कई पंच वर्षिय योजनाओं में प्रदेश को केंद्र से पूरा पैसे हासिल नहीं हुये और व्यक्तिगत तौर पर बिहार के नागरिकों के साथ महाराष्ट्र, दिल्ली और देश के अन्य राज्यों में कैसा व्योहार होता है जग जाहिर है। पिछले दशकों में बिहार में कोई नया उद्योग नहीं लगा और जिन्होंने प्रदेश में निवेश किया था वे भी जाते रहे। अब जब नितीश को जनता ने दोबारा चुन कर मुख्यमंत्री के पद पर बैठाया है तो उनके पास वापिस से पांच साल का वक्त उस नींव पर ईमारत खड़ी करने के लिये जो कि उन्होंने पिछले पांच सालों मंे अपने कार्यकाल के दौरान डाली थी।

Tuesday, November 16, 2010

दिल्ली मेट्रो- महिला आरक्षण, सुविधा एक असुविधा अनेक

२ अक्टूबर से दिल्ली मेट्रो ने महिलाओं की सुविधा के लिहाज से ट्रेन के पहले कोच को आरक्षित कर दिया है। इस कोच में पुरूषों का प्रवेश निषद ह्रै। शेष तीन कोच पहले की तरह सभी के लिये है अर्थात इन कोचों में पुरूष और महिला दोनों ही एक साथ सफर कर सकते हैं।

दिल्लों मेट्रो ने यह कदम ट्रन में महिलाओं के साथ हुई छेड़ छाड़ की घटनाओं के बाद उठाया है। इस कदम से जहां महिलाओं को सुविधा हुई है वहीं इसकी वजह से कई असुविधाओं ने भी जन्म लिया है। यह असुविधाऐं दानों ही महिलाओं और पुरूषों को वहन करनी पड़ रही है। इन समस्याओं में से कुछ पहले की तरह विद्यमान हैं वहीं कुछ नये उतपन्न हुये हैं। मेरे कहने का तात्पर्य है कि महिलाओं के साथ होने वाली घटनाएं अब भी हो रही हैं, हलांकि इनमें थोड़ी कमी जरूर आयी हैं। लेकिन जो परिवर्तन देखने में आया है वह थोड़ा अजीब है। जहां पहले महिलाओं के साथ छेड़ छाड़ की घटनाओं में पुरूषों की सहानभूति और सहायता मिलती थी वह अब नदारद है। अब यदि कोई व्यक्ति महिला के साथ छेड़ छाड़ की घटना को अंजाम देता है तो सह पुरूष यात्री उसका विरोध करने की जगह तमाशबीन बने रहते हैं। अगर किसी महिला ने विराध किया तो उन्हें बड़े ही असभ्य तरीके से सुनने को मिलता है ''अगर आपको ज्यादा परेशानी हो रही है तो आप लेडीज कोच में क्यों नहीं चली जाती हैं।`` महिलाओं के साथ हुए इस असभ्य व्योहार को पुरूषों का मौन समर्थन मिलता है और बार की तरह महिला ही पिसती है।

मेट्रो की यह पहल पुरूषों और महिलाओं में एक प्रकार का लिंग भेदी स्थिति पैदा कर रही है जहां दोनों साथ हो कर भी साथ नहीं हैं। महिला के उत्तथान के कसीदे पढ़ने वाली सरकार को यह सोचने की आवश्यक्ता है ऐसे देश में जहां महिला और पुरूष के बीच की खाई पहले ही काफी ज्यादा है, जहां अब भी बेटीयों को बोझ समझा जाता है, उस देश में इस तरह के कदम कहां तक सही होंगे? यहां जरूरत उस पुरूष वर्ग को बदने की भी है जो नारी रूप में आदि शक्ति रूपी दुर्गा को पूजता है और उन्हें मां बुलाता है वही बाहर जा कर रावण सरीके हरकत हरता है।

Monday, November 15, 2010

कॉमनवेल्थ खेल और भारत की अस्मत

देश की राजधानी दिल्ली में १९ वां कॉमनवेल्थ खेल चल रहे हैं। इसी वजह से शहर की शक्ल सूरत बदली बदली दिख रही है। चाहे वह  सड़के हों, फलाईओवर हों, या फिर मेट्रो, हर जगह खेल अपना असर दिखा रहा है। लेकिन मानो अभी कल ही बात लगती है जब इन्हीं खेलों के आयोजन से संबंधित खामियों की गूंज देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी सुनाई दे रही थी। हर जगह थू थू हो रही थी और शायद इसी वजह से सबको यह लग रहा था कि खेलों की मट्टी पलीत होनी तय है। हर जगह बदइन्तेजामी और भ्रष्टाचार ने अपनी काली छाप छोड़ रखी थी जो कि एक अंधे को भी साफ दिखाई दे जाती लेकिन सरकार को दिखाई नहीं दी।

दरअसल खेलों के आयोजन से जुड़े सभी सफेदपोश नेताओं और नौकरशाहों ने अपने पद और आयोजन के पैसे का गलत इस्तेमाल किया जिससे आयोजन का र्खच का बजट १७ प्रतिशत बढ़ कर करीब ७० हजार करोड़ तक जा पहुंचा। इस सारे गोरख धंधे में नेताओं और नौकर शाहों कि वेल्थ बनी और कॉमन आदमी को हर तरफ से परेशानी का सामना करना पड़ा। चाहे वह खाद्य सामग्रीे की आसमान छूती कीमतें हों या बसों और ऑटो के किरायों में हुई वृद्धी हो या फिर बिजली और पानी के किरायों में हुई वृद्धी हो, पिसा आम आदमी ही। इन सब वजहों से देश का कॉमन मैन यह सोचने पर मजबूर हो गया कि यह सब किसके लिये? क्या सरकार को यह नहीं दिख रहा कि इन नीतियों और करों के बोझ तले आम आदमी इतना दबता जा रहा कि उसका सांस लेना भी मुश्किल हो गया है।

इन सब बातों को नजर अंदाज होता गया और भ्रष्टाचार अपना शबाब दिखाते हुये चरम पर विद्यमान दिखा। जब इसकी खबरें भारत सहित विदेशी मीडिया में आने लगी तब कहीं जाकर सरकार को होश आया और आनन फानन में कुछ र्कायवाहीयां की गई। राष्ट्रमण्ड खेलों के आयोजन समिति के अध्यक्ष सुरेश कलमाणी एंड़ कंपनी हिट लिस्ट में रही लेकिन इस मकड़ा जाल के कई और नामों का खुलासा होना बाकी है।

इन सब घटनाओं के परे ३ अक्टूबर को खेलों ने अपनी ही गति से दिल्ली के दरवाजे पर  दस्तक दे डाली। खेलों का आगाज़ कुछ इस सरीके हुआ कि पूरे विश्व की आंखें फटी की फटी रह गई। सबने यह देखा और जाना कि क्यों अब भारत को विश्व की तीसरी बड़ी शक्ति कहा जाने लगा है। खेलों का उदघाटन समारोह भव्य था और इसे अब तक का सबसे अच्छा उदघाटन समारोह की संज्ञा भी दी गई। देश विदेश के खिलाड़ी आये और भारत की प्राचीन परंपरा 'अतिथि देवा भव:` को जाना। उन्होंने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रर्दशन देते हुए र्स्वण, रजत और कांस्य पदको पर अपना कबजा जमाया। इन खेलों ने दिल्ली में ही नहीं बल्कि पुरे हिन्दुस्तान में अपने रंगों की खूब छटा बिखेरी जिससे समुचा राष्ट्र रंगों से सराबोर हो उठा।

इसके साथ ही खेलों में भारत के दो चेहरे देखने को मिले। पहला वह चेहरा जिसने भारत की छवी को दाग दार किया और अपने कारगुजारियों के कारण खेलों के इतिहास में एक काला अध्याय बन गया। दूसरा वह भारत जिसके अथक प्रयासों ने समूचे विश्व के सामने भारत की लाज बचाई, देश का नाम रौशन किया और अपने बढ़िया प्रदर्शन के बदौलत खेलों में स्वर्ण, रजत और कांस्य पद जीत कर भारत की झोली में डाला। भारत का पहला चेहरा उन दागी नेताओं, नौकरशाहों और खेलों के दिये गये किट ले कर फरार वॉलंटिर्यस का है और वहीं दूसरा चेहरा खिलाड़ियों का है जो कई तरह के अभावों का शिकार होने के बावजूद न सिर्फ खेलों में भारत को पदक दिलाये बल्कि पद तालिका में राष्ट्र को दूसरे पायदान पर ले आये। दूसरा चेहरा उन खिलाड़ियों का भी है जो पद तो न ला सके मगर अपने अथक प्रयास से खेल भावना को सींचा। सबसे अफसोस जनक बात तो यह है कि भारत का पहला चेहरा दूरसे की वाहवाही लूटना चाहता है। वह चाहता है कि सारा श्रेय उसे मिल जाये लेकिन शायद वह यह भूल रहा है उसी की कारगुजारियों के कारण भारत की नाक नीची हो गई थी और अब जो बड़े ही मशक्कतों के बाद वापिस जुड़ी है।

इनहीं हालातों को मद्दे नजर रखते हुए सरकारें दोषियों को कड़ी सजा देना चाहिये। इस पर केन्द्र सरकार ने एक और कमेटी बनाई है जो कि केन्द्र को अपनी रीर्पोट तीन महीने के भीतर सौंप देगी। उम्मीद की जा सकती है कि सरकार के यह प्रयास भ्रष्टाचार के नाग के फन को कुचलने में कामयाब रहेंगे और ऐसा उदाहरण पेश करेंगे कि फिर कभी भी कोई देश की असमत के साथ खिलवाड़ न करे। केन्द्र और राज्य सरकारों को अपने स्तर पर खेलों के प्रोेतसाहन के लिये भी कदम आगे बढ़ाने होंगे जिससे खिलाड़ियों को और बेहतर प्रर्दशन करने के लिये प्रेरित करे जा कि अभावों में उतना नहीं हो पा रहा।

Friday, August 20, 2010



क्योंकि कुर्सी छूटती नहीं मुझसे



क्योंकि कुर्सी छूटती नहीं मुझसे
एक यही है जो कभी रूठती नहीं मुझसे
मैं बैठा रहूं यी नहीं, इसका मोह जाता नहीं 
अगर ना रहूं इस पर, ये पूछती है मुझसे

तुम फिर कब आओगे, फिर कब आओगे
भ्रष्टाचार के नये दीये फिर कब जलाओगे
जब तक हो चूस लो खून जनता का
अगर चले गये तो प्यास कैसे बुझाओगे

क्या लेना तुम्हें अपने राष्ट्र से
कानून अपना तो डरना किस बात से
जो उठे खिलाफ उसे तुम पिसवा देना
वो हिल्दू या मुस्लिम, तुम्हें क्या लेना जात से

कौन मरा 62,75,2000 में, क्या लेना उससे
जो मुझे पैसे दे, मुझे काम है उससे
मेरा भी घर है, परिवार चलाना है मुझे
जो वेतन है, क्या होता है उससे

देश भले गर्क में जाये, ईमानदारी न होगी मुझसे
अरे ऐसा कुछ बताओ, जो हो जाये मुझसे
मेरा तो बस नाता है राजनीति से
क्योंकि कुर्सी छूटती नहीं मुझसे

Monday, August 16, 2010



लालगढ़ में दिखी ममता

दिन सोमवार, तारीख 9 अगस्त 2010 और जगह माओवादीयों का गढ़ कहे जाने वाला लाल गढ़। केन्द्रिय रेल मंत्री और तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्षा ममता बनर्जी ने लालगढ़ में माओवादियों से शान्ति के अनुरोध हेतु एक सभा आयोजित की जिसमें उनके साथ मंच पर माओवादियों के प्रति अपने दिलों में सहानुभूति और नरमी रखने वाले कुछ गैर सरकारी संगठन और कुछ लोग मंच पर मौजूद थे।

अपने भाषण में ममता बनर्जी ने माओवादियों से हिंसा का रास्ता छोड़ बातचीत की राह पकड़ने का आग्रह किया। बात यहां तक तो सही चलती रही लेकिन ममता ने अपने भाषण में कुछ ऐसा कह गई जिससे विपक्ष समेत देश का एक बड़ा बुद्वजीवी वर्ग की भौंऐ तन गई। ममता ने अपने भाषण में माओवादी नेता चेरूकुरी राजकुमार उर्फ आजाद की हत्या की गई।

लगता है ममता जी यह भूल गई हैं कि नक्सलियों द्वारा इतने लोग मारे गये हैं जितने कि आतंकवादी हमलों में नहीं मारे गये। मैं नहीं कहता कि माओवादियों से सहानुभूति रखना गलत है। आखिर उनके साथ अन्याय हुआ जिसके प्रतिशोध में उन्होंने हथियार उठा लिये मगर हर मुद्दे को राजनीतिक रूप देना कहां तक सही है। मैं नहीं कहता कि ममता बनर्जी की अनुरोध गलत है लकिन यह कहना कि आजाद की हत्या की गई गलत है क्योंकि इससे उन्हें और बल मिलेगा जो कि सही नहीं है।

Wednesday, July 14, 2010



कश्मीर और भारत

कश्मीर, भारत कर ताज, भारत का स्वर्ग और न जाने किन किन नामों से हम संबोधित करते रहे हैं। यहां की डल ऋझील और गृह नौकाएं, बर्फ के पहाड़ और चारो तरफ हरी भरी छटा हमेशा से अपनी ओर आकर्षित करती रही हैं। इन मनमोहक नजारों को मैंने और आपने फिल्मों में भी खूब देखा होगा और जिन लोगों को यहां आने का मौका मिला उनके लिये ये सोने पे सुहागा जैसे बात रही होगी। मगर जब से आतंकवाद ने अपने कदम वहां रखे तब से कश्मीर की फिजाओं में मानो ज़हर घुल गया हो।  इस पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद ने वहां ऐसा माहौल पैदा कर दिया कि लोग वहां जाने से कतराने लगे। हालात को नियंत्रित करने के उद्येश्य से वहां सेना भी मौके बेमौके आती रही है और आतंकवाद रूपी नाग के न केवल दांत तोड़ती बल्कि फन भी कुचलती रही है।

बीच में कवायद रंग लाई और कश्मीर के हालात सुधरने लगे थे और घाटी की पुकार फिर से लोगों के कानों में पड़ने लगी थी। इस बीच मैं भी अपने माता पिता के संग वहां हो आया। माहौल तो शांत था मगर लोंगों के चेहरे पर मौत के डर, खून और चीख पुकार की छाई खामोशी बखूबी देखी जा सकती थी। प्रमुख स्थलों और बाज़ारों में सुरक्षा बलों की टुकड़ीयां तैनात दिखी जो जाने अनजाने हमें हमेशा सजग रहने की हिदायत देती और वहां की घ्सटनाओं को याद दिलाती थी। मगर घाटी का शांत माहौल ज्यादा दिनों तक शांत नहीं रह पाया और एक बार फिर आतंकियों ने बंदूकों के साये तले आतंक का नंगा नाच फिर से शुरू कर दिया। सीआरपीएफ और पुलिस बल के जवान तो वहां कायम थे ही सेना के आने और जाने का सिलसिला बादस्तूर जारी था।

आतंकवाद से लड़ते लड़ते सुरक्षा बलों की आंखों ने इतना खून देख लिया कि शायद कि वे अपने और आतंकवादियों मंे ज़्यादा फर्क न कर पाये और कई अमानवीय घटनाओं को अंजाम दे बैठे। आतंवाद के नाम पर वहां के बाशिंदों का फर्जी एनकाउंटर, अवैध हिरासत, बलातकार जैसी घटनाओं से अपने साफ छवी बेदाग न रख पाये और गंदी कर बैठे। सरकार का सारा ध्यान पाक प्रायोजित आतंकवाद पर था और है शायद इसी वजह से उसका ध्यान इस घटनाओं की ओर नहीं हो पाया। जब रक्षक भक्षक बन रहा था तब सरकारें आतंवाद से ग्रसित कश्मीर से चिंतित थी और उसे मुक्ति दिलाने के प्रयासों में लगी थी जो आज तक जारी है। इन्हीं सारी वजहों से आम जनता की भावनाये आहत होने लगी और वे खुद को सभी के बीच अकेला और असहज महसूस करने लगी। इस बीच खबरों का बाजार भी गरम रहा कि घाटी के नौजवान पाकिस्तान जा कर आतंकवादियों से हाथ मिला बैठे हैं और प्रशिक्षण ले कर भारत के ही खिलाफ हथियार उठा रहे हैं। शायद लोगों की ये प्रतिक्रिया उन्हीं आहत भावनाओं के फल स्वरूप रही होगी। मगर इसके से ही आत्मसमर्पण और वतन वापसी की खबरें भी आती रही। अभी हाल ही में ऐ वाक्या जो मुझे याद है वो ये कि एक शक्स जो लश्कर-ए-तैयबा में शामिल हो गया था, वहां के माहौल से परेशान हो कर वतन वापसी की राह में सीमा पार करते वक्त सुरक्षा बलों द्वारा पकड़ लिया गया। कई समाचार पत्रों ने उसका साक्षतकार भी छापा था जिसमें ये भी बताया गया कि उसके जैसे ही और भारतीय कश्मीरी नागरिक जो आतंकवादीयों के शिविरों में प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे हैं वे भी वतन वापसी की फिराक्त में हैं।

ऐसा नहीं है कि कश्मीर घाटी में हालात अब सामान्य हैं। अलबत्ता वहां जन आक्रोष धीरे धीरे और बढ़ रहा है जिसने अपना रूप भी लेना प्रारंभ कर दिया है। इसका फायदा वहां के कुछ अलगाववादी संगठन और राजनीतिक पार्टीयां उठा रही हैं जिन्होंने वहां के नौजवानों को फुस्लाकर अपने गुटों में शामिल कर लिया है और अपने फायदे के लिये छोटे छोटे मुद्दे बना कर उन्हें सड़को पर भारी हंगामा करने उतार देती हैं। अभी कुछ ही दिनों पहले ऐसे हालात सामने आये थे जहां पुलिस बल और ऐसे संगठनों से जुडे़ युवाओं के बीच झड़प देखी गई। यह भी बता दें कि ये राजनीतिक  पार्टीयां और अलगाववादी संगठन अपने अपने संगठनों से जुड़े यूवाओं को वेतन भी मुहैया करवाते हैं जिससे ये वहां युवाओं के बीच रोज़गार का साधन के रूप में भी अपनी जड़ बना रहा है। इन्हीं झड़पों के क्रम में कुछ ही महीनों के अंतराल के बाद एक और वाक्या सामने आया जो इतना बढ़ गया कि वहां कफर््यू लगानी पड़ी। इस दौरान भी झड़पों का सिलसिला कायम रहा जिसेमें कुछ लोगों की सीआरपीएफ की गोलियों से मौत हो गई। पिछली बार की तरह इस बार भी अलगाववादी संगठनों और हुर्रियत कानफ्रंस ने मौके का फायदा उठाने की कोशिश की। यहां यह भी बताते चलें कि हुर्रियत कानफ्रंस की आतंकी संगठनों से रिशते जग जाहिर हैं। उनकी इस कवायद का हिस्सा आतंकवाद को भीड़ में शामिल करना था जिससे मरने वालों की संख्या में और इज़ाफा हो सके। इस पहल से आतंकवाद को एक नया चेहरा देने की कोशिश थी जिससे मरने वालों की संख्या में भारी इज़ाफा किया जा सके और भारत की छवी पर दाग लगाया जा सके। इसका सीधा फायदा पाकिस्तान को मिलता जिससे वह एक बार फिर आरोप लगाने और आतंकवाद और कश्मीर जैसे अहम मुद्दों से भटका सके।

हलांकि कफर््यू हटा ली गई है लेकिन अब भी इससे गेरेज़ नहीं किया जा सकता कि घाटी के हालात अब भी काफी बिगड़े हुए हैं। लेकिन यहां पर सवाल इस बात का नहीं है कि हालात कितने दिनों तक सामान्य बने रहते हैं बल्कि ये है कि लोगों के दिलों में पल रहे तूफान को कैसे शांत किया जाये और उनके साथ हुए अन्याय के लिये उन्हें क्या न्याय मिले और कैसे सुनिश्चित किया जाये कि आगामी भविष्य में उनके साथ ऐसी कोई घटना नहींे होगी। ये सवाल सिर्फ उमर सरकार की नहीं है बल्कि इसके लिये कारगर कदल की पहल केन्द्र को करनी होगी। केन्द्र को यह सुनिश्चित करना होगा कि उसके द्वारा उठाये कदमों का पालन भी हो। यहां पर ज़रूरी होगा कि कोई भी राजनीतिक पार्टी इन्हें मुद्दा न बाये जिस पर वे अपनी रोटीयां सेकें। इन सब प्रयासों में मीडिया की भी भूमिका होनी चाहिये जिससे कि वह अपने कलम और कैमरों की सहायता से सरकार और अलगाववादी संगठनों पर अपनी पैनी नज़र बनाये रखे।
आनर किलिंग...........सोचिये!

बरसों से हमारे देश ने प्यार और प्यार करने वालों को अपने दिलों में खास जगह दी है। बरसों से कृष्ण और राधा के रूप में पूजते आ रहे हैं और हीर रांझा, सोनी महीवाल जैसे प्रेमियों को अपने जहन में एक खास जगह देकर जिन्दा रखा है। हमारे फिल्म जगत ने भी प्यार और प्यार करने वालों पर न जाने कितनी फिल्में बनाई हैं और आगे भी न जाने कितनी बनाता रहेगा।

मगर जहां हमारा समाज फिल्मों में प्यार को खूब सराहता है वहीं उसके जीवन में शुमार होने पर बौखला उठता है। जब उनके बच्चे प्यार की राह में अपने कदम आगे बढ़ाने लगते हैं तो सारा परिवार या यूं कहंे कि सारा समाज उनके खिलाफ हो जाता है। कभी कभी तो ये खिलाफत इतनी आगे बढ़ जाती है कि वे इन्सानियत की सारी हदें पार कर अपने लख़ते जिगर के टुकड़ों को मौत के घाट उतारने से भी गुरेज नहीं करते।

लेकिन ये कभी कभी होने वाल घटनायें आज कल आम हो चली हैं। आज समाचार पत्रों में माता पिता द्वारा अपनी झूठी इज्ज़त के नाम पर बरपाई गई कहर सुर्खियां बटोरती नजर आती हैं। पहले जहां शुरूआत पंजाब से हुई वहीं दिल्ली और आस पास के इलाके इसकी आंच से खुद को बचा नहीं सके और उसमें अपने जिगर के टुकड़ों को जला ड़ाला। आज झूठी शानोशौकत के नाम पर प्यार के दुश्मन पूरे भारत में अपना कहर बरपा रहे हैं। चाहे वह खाप पंचायत हो, एक गोत्र में विवाह का मामला हो या फिर प्यार की हत्या यानी आनर किलिंग का, अपने ही अपनों का खून बहाते नजर आ रहे हैं। देखा जाये तो आज पूरे भारत में प्यार के दुश्मन कहीं न कहीं दो दिलों का बेरहमी से गला घोंट रहे हैं। सरकार भी इस मामले पर परेशान है क्योंकि न तो इस मसले से संबंधित कोई कानून है और न ही कोई ठोस उपाय जिसे अपनाया जा सके। ऊपर से कानून व्यवस्था की जो धज्जियां उड़ रही हैं वा अलग।

लोग या समाज चाहे इसके लिये कोई भी दलील क्यों न दे लेकिन सच तो यही है कि माता पिता उन्हें ही मौत के घाट उतार रहे हैं जिनके लिये उन्होंने ही कई बार उनके सपनों के लिये अपने सपनों की कुरबानी दी होगी। माता पिता का ये अमानवीय रवैया हमारे सभ्य समाज के उस चेहरे को उजागर करता है जिसे अभी तक शर्म, लिहाज, आदि के नाम पर अभी तक छिपाया जा रहा था। कहने को भारत 2020 तक ख़ुद को विकसित देशों के नामों में शुमार देखना चाहता है लेकिन इस जो हमारे समाज की कूरीतियां हैं उनसे कैसे पार पाया जाये, बड़ा सवाल है। ज़रा सोचिये कि क्या ये सही है कि अपने झूठी शान और शौकत के नाम पर अपने ही नौनिहालों को मौत के घाट उतार दिया जाये। ये शानो शौकित किस काम की जो अपने बच्चों की लाशों पर खड़ी की जाये। अगर यह सही है तो प्यार के नाम पर अब तक की सारी मान्यतायें, परम्परायें सिर्फ एक ढ़कोसला हैं। और अगर ये सब एक ढ़कोसला है तो फिर इसे क्यों मानते आ रहे हैं, छोड़ क्यों नहीं देते? सवाल अब भी अपना मुहं खोले हमारे सामने खड़ा है और हमसे ये पूछ रहा है ज़रा सोचिये............!

Tuesday, July 13, 2010

अंग्रजी के सामने सिसक्ती हिन्दी

भारत जिसे राजा भरत के नाम पर या हिन्दुस्तान या जिसे अंग्रेजों ने जिसे इंड़िया बुलाया एक संप्रभू राष्ट्र है। यह राष्ट्र अपने अंदर कई भाषाऐं समाहित किये हुये है। इन्हीं में से एक हिन्दी है जिसे अनुच्छेद 8 के अंतर्गत राज्य भाषा का दर्जा हासिल है। लेकिन इस देश की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि इसे अपनी ही भाषा की सुद लेने की फुरसत नहीं है। आज हिन्दी अपने ही देश में अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है।

आज कोई भी भारत का शिक्षित नागरिक हो या सरकार, सभी को आंग्ल भाषा या यंू कहें की अंग्रेजी ने अपने गिरफ्त में कुछ ऐसे ले रखा है जिससे वे हिन्दी पर अपना ध्यान केन्द्रित ही नहीं कर पा रहे हैं। आज सरकारी दफतरों से लेकर नीजी उद्योगों के दफ्तरों तक, यहां तक की हमारे न्यायलय में भी हिन्दी के आगे हिन्दी हावी दिखाई देती है। आज अंग्रजी का आलम ये हो गया है कि चाहे वा कोई स्कूल जाता बच्चा हो या फिर एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति सभी अंग्रजी के पीछे बेतहाशा भाग रहे हैं। अगर सरकारी विद्यालयों को छोड़ कर नीजी विद्यालयों की बात करें तो वहां हिन्दी के अलावा बाकी सभी विष्य अंग्रेजी में होते हैं। स्वंय माता पिता भी जानते हैं कि आज हिन्दी का आलम क्या है, इसी वजह से वे अपने बच्चों को अंग्रेजी की ओर दौड़ा देते हैं जिससे उन्हें बड़े होने पर अनपे जीवन व्यापन के लिये नौकरी मिल जाये। आज भारत का पढ़ा लिखा वर्ग अंगेजी को उच्च वर्ग से जोड़ कर देखता है और कोशिश करता है कि उनकी सुबह अंग्रेजी से शुरू हो और रात अंग्रेजी पर ख़त्म। सपनों से ले कर बातों तक और खयालों से ले कर खानों और सोने तक सब कुछ अंग्रेजी में ही करना चाहते हैं। बड़े आसानी से उन्हंे इस जुगत में देखा भी जा सकता है।

मैं यहां पर किसी भाषा पर सवाल नहीं उठा रहा हुं बल्कि यहां पर हिन्दी की वर्तमान स्थिति को रखने की कोशिश कर रहा हंू। मैं अपने इस लेख से अपनी मात्र भाषा हिन्दी के प्रति लोगो को पुनः जाग्रित करना चाहता हुं ताकी वह अपने देश को भारत बुलाएं न कि अंगेजों द्वारा दिया इंड़िया। मैं यह भा जानता हंू कि शायद मेरे बड़े मुझसे एक राय न हों पर मैं एक बात जाना हंू कि शुरूआत कहीं से तो होनी है और ये शुरूआत किसी ने तो करनी थी। भारत के लिये इससे बड़ी विडम्बना और क्या होगी कि उसे हिन्दी की रक्षा के लिये हिन्दी दिवस मनाना पड़ता है। हिन्दी की इस दयनीय अवस्था से हम सभी भारतीयों को जरूर शर्मसार महसूस करना चाहिये।

मैंने एक बार एक अंग्रेजी के प्रख्यात दैनिक समाचार पत्र में हिन्दी की इस दयनीय अवस्था के बारे में पढ़ा और सोचने लगा कि क्या ज़माना आगया है और मन ही मन हंसने लगा कि जिस भाषा ने हिन्दी का ये हाल किया है वही अब हिन्दी के वर्तमान हालात के बारे में बता रही है। यहां सोचने की ज़रूरत है कि अगर आने वाले दिनों में हिन्दी का यही हाल रहा तो कहीं हमें अपने बच्चों से ये न कहना पड़े कि "Children learn this language. It is Hindi. It is our National Language."

Monday, July 5, 2010

नामकरण प्रक्रिया

राजनीतिक हल्कों में जगहों, स्मारकों आदि के नाम बदलने का प्रचलन काफी पुराना है। इसी प्रचलन में कुछ ही दिनों पहले एक और जगह का नामकरण कर दिया गया। इस बार यह प्रक्रिया कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी के संसदिय क्षेत्र अमेठी के साथ दोहराई गई जिसे उ0प्र0 की मुख्य मंत्री और बसपा सुप्रीमो मायावती ने बदल कर छत्रपति शाहूजी महाराज नगर कर दिया है। राजनीति की शतरंज में मायावती अपनी इस चाल से जहां फूली नहीं समा रही होंगी वहीं सोनिया गांधी जरूर थोडी सोच विचार में पड़ी होंगी। सोच इस बात कि अब तक जहां वे अपनी सार्वजनिक सभाओं में ‘‘मेरे प्यारे अमेठी के निवासियों’’ कहा होगा वहीं अब उन्हें नाम लेने में थोड़ी असहजता महसूस होगी। अब उन्हें अपनी सार्वजनिक सभा में वहां के निवासियों को ‘‘मेरे प्यारे छत्रपति शाहूजी महाराज नगर’’ के निवासियों कहने के लिये ज़ुबान को अच्छी खासी कसरत करानी पड़ेगी।

लेकिन इस प्रचलन के इतिहास पर अगर नज़र ड़ाले तो कभी भी नामकरण का फायदा वहां की जनता को मिलाता नहीं दिखता। न तो इन सब चोचलेबाजी से उनकी आय बढ़ती है और न ही निगम की कार्यप्रणाली और कानून व्यवस्था में सुधार आता है। यानी कि जगह का नाम तो नया हो गया लेकिन बाकी सारी चीज़े जस की तस ही रहीं। अर्थात कुल मिला कर यही कहा जा सकता है कि किसी पार्टी विशेष के नेता या महापुरूष के नाम को अमर बनाने की कवायद में जनता का भला नहीं होता। जनता वहीं अपनी दो जून की रोटी की जुगत में पसीना बहाती रहती है और हमारे राजनेता अपनी कारगुज़ारी पर वातानुकूलित अपने दफतर में बैठ अपनी पीठ थपथपाते नहीं थकते।

स्थानों, स्मारकों आदि के नामकरण का इतिहास यह भी बताता है कि इसकी शुरूआत हमारी वर्तमान केंद्र सरकार और देश की सबसे बड़ी पार्टीयों में से एक कांग्रसे ने शिलान्यास रख कर की थी। तब से अब तक जिस राजनीतिक पार्टी ने चाहा उसने इसी भूमी पर अपनी अपनी ईमारत खडी कर नामकरण की पद्यति को आगे बढ़ाया और अब भी अपने अथक प्रयास में अग्रसर हैं। अगर ज़्यादा दूर की बात न कर के आपने शहर और देश की राजधानी दिल्ली की ही बात करें तो हम पायेंगे कि यह भी इससे अछूती नहीं है। दिल्ली का दिल कहे जाने वाले कनाट प्लेस का नाम बदल कर राजीव चैक और अंतरराष्ट्रिय हवाई अड्डे का नाम बदल कर इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रिय हवाई अड्डा कर दिया गया। इसका फायदा लोगों को तो कुछ नहीं मिला लेकिन नामों को लेकर शंशय कि स्थिति ज़रूर पैदा कर डाली है। लेकिन जैसे पुरानी चीज़ें अपना छाप छोड़ देती हैं और भुलाये नहीं भूलती वैसे ही कनाट प्लेस के साथ भी वैसा ही कुछ है। लोगों के ज़ुबान पर कनाट प्लेस कुछ ऐसा चढा है कि राजीव चैक का नाम किसी को याद भी नहीं है और अगर मैट्रो नहीं होती तो शायद कभी याद भी नहीं आता लेकिन सरकारी दफ्तरों में इसका नाम राजीव चैक दर्ज है।

यहां गौर करने वाली बात यह है कि इस तरह की राजनीतिक प्रयासों से पैदा होती व्योहारिक दिक्कतों सरकारी दफ्तरों में काम करने वालों के लिये भी परेशानी का सबब बनती रही है। वहीं कुछ नाम अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं जिन पर इस नामकरण का कू प्रभाव नहीं पड़ा है जैसे चैन्नै का हाई कोर्ट आज भी मद्रास हाई कोट के नाम से जाना जाता है, बम्बई या बाम्बे का मुंबई होने के बावजूद भी बाम्ब हाई कोट और बाम्बे स्टाक एक्सचेंज अपने पुराने नाम से ही जाने जाते हैं। यह हमारे राजनेताओं और सरकारों को सोचना चाहिये कि सिर्फ अपने राजनीतिक लालसा के लिये स्थानों, स्मारकों आदि बदलने से देश का कल्याण कभी नहीं होगा। देश का कल्याण होगा उन जगहों की सूरत बदलने से, लोगों को राज़गार मुहैया कराने से, उनके जीवन व्यापन के स्तर को उठाने से, शिक्षा आदि से। वरना कहीं इसी तरह के प्रयासों से प्रभावित होकर राज्य तेलंगाना की भांती अलग राष्ट्र की मांग करने लगेंगे और देश का विघटन हो जायेगा।

Saturday, July 3, 2010


नक्सलियों के आगे बौनी सरकार

छत्तीसगढ़ सरकार नक्सलियों के आगे घुटने टेकते दिखाई दे रही है। यह तथ्य और उजागर तब और हुआ जब गत मंगलवार को नारायणपुर जिले में नक्सलियों ने सीआरपीएफ के 26 जवानों को मौत के घाट उतार दिया था। बताया जाता है कि तब हुई जब जवान दौराई रोड़ से पैदल ही कैंप को लौट रहे थे।

लगातार हो रहे नक्सलियों के हमलों से एक बात तो उजागर ज़रूर हुई है कि चाहे राज्य और केंद्र सरकारें नक्सलियों की चुनौती को अपने अपने बयानों में कितना भी गंम्भीर मामला बतायें और उनसे निपटने के लिये चाहे कितने भी उपायों पर काम करने की बात कहें मगर ज़मीनी हक़ीकत तो यही है कि नक्सल विरोधी अभियान कि गति वही है जो कि किसी सरकारी दफतर में सरकारी काम की होती है, बेहद सुस्त, ढीली और लचर। देखा जाये तो इसमें सरकारों की भी कोई गलती नहीं है क्योंकि इन नक्सली हमलों में किसी सरकारी मंत्री का कोई सगेवाला या कोई रिश्तेदार तो नहीं हताहत हुआ है ना। अगर सरकार के किसी मंत्री जा का प्यारा पालतू कुत्ता कहीं खो जाये तो प्रदेश की पूरी ताकत उसे ढूढ़ने में लगा दी जाती है। मगर यहां न तो उनका पालतू कुत्ता खोया है और नहीं उनका कोई सगे वाला इस दौरान हताहत हुआ है। इस लिये यदि यह कहा जाये कि सरकार इस मामले में शिथिल रवैया अपनाये हुए है तो यह कदाचित गलत नहीं होगा। सरकारे इन मसलों पर पीडितों दिलासा देने के अलावा कुछ नहीं कर सकती हैं। अरे हां मैं तो यह भूल ही गया था कि पीडितों को सरकार की तरफ से मुआवजा़ भी दिया जाता है मगर हमारी सरकारें यह भूल रहीं हैं कि बापू के चिन्ह वाले उन नोटों से नम आंखों के आंसू नहीं पोछे जा सकते हैं। उन नोटों में जान नहीं होती है और न ही ये उन जानों की कीमत लगा सकती हैं। इन हालातों को देखते हुए यदि यह कहा जाये कि सरकारों में नक्सलियों से निपटने की दृढ इच्छाशक्ति का आभाव है तो इसमें कोई अतिशियोक्ति नहीं होगी। इसी वजह से केंद्र सरकार और प्रदेश सरकार के बीच तालमेल के आभाव गहराती को खाई साफ देखा जा सकता है।

यहां बताते चलें कि दंातेवाड़ा हमले के बाद गठित एक सदस्यीय ई0 एन0 राममोहन कमिटी ने अपनी रीपोर्ट में सीआरपीएफ की नक्सलियों से लोहा लेने की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाते हुये अपनी रणनीति बदलने की सलाह भी दी थी। इस रापोर्ट को केन्द्रीय गृह मंत्री पी0 चिदंबरम ने काफी गंभीरता से लिया था और इसे अमलीय जामा पहनाने का निर्देश दिया था मगर वही ढाक के तीन पात कि केन्द्र के निर्देश का अभी तक तो देखने में नहीं आया है।

इसे सरकार का आनन फानन में लिया गया कदम ही करेंगे कि जम्मू कश्मीर में आतंकवादियों का सामना कर रहें जवानों को बगैर किसी विशेष प्रशिक्षण के नक्सल प्रभावित इलाके में भेज दिया गया या यूं कहें कि नक्सलियों के आगे डाल दिया गया। यह भी देखने की चेष्टा नहीं की गई कि क्या वे मानसिक और शारीरिक तौर पर इतने सुदृढ हैं कि इन विषम परिस्थियों का सामना कर सकें।

अगर इस पूरे मामले की थोड़ी गहराई में उतरा जाये तो पायेंगे कि इस छोटे से ज़ख़्म जिसे ठीक किया जा सकता था, राजनीतिकरण ने उसे नासूर बना दिया। जब छतीसगढ़ में कोई भी नक्सली हमला हुआ हर बार विपक्ष ने इस पर हाय तौबा मचाई और ख़ूब राजनीति भी खेली मगर कभी यह प्रयास नहीं किया इस मसले का मिल बैठ कर सामाधान निकाला जाये। देखा जाये तो पूरे देश में कुछ इस तरह का माहौल व्याप्त हो चुका है कि नक्सलवाद के लिये पूरी तरह से र्सिफ केंद्र सरकार ही जिम्मेदार है। लेकिन ज़मीनी स्तर की सच्चाई तो यह है कि नक्सलियों और माओवादियों ने निपटाने की पूर्णत्या जिम्मेदारी प्रदेश सरकार की ही होती है। केंद्र सरकार इसमें बस सहयोग कर सकती है, मार्गदर्शन या दिशानिर्देश दे सकती है प्रदेश सरकार की जगह आ कर उनका काम अपने हाथ में नहीं ले सकती है। एक वक्त में आंद्र प्रदेश के हालात छत्तीसगढ़ जैसे ही थे मगर वहां की सरकार ने अपने बूते मोर्चा खोला जिसका नतीजा यह हुआ कि अब वहां के हाताल काफी सुधर गये हैं। आज जो हाल छत्तिसगढ़ का है वही कमोबेश बीहार, झारखंड़, उड़ीसा और बंगाल का है। यहां की सरकारें बगै़र रीढ़ वाली है जिसका सीधा फायदा माओवादियों को मिल रहा है। इन राज्यों में ज़रूरत है पुलिस बल को सुदृढ़ बनाने की क्योंकि बगैर सुदृढ़ पुलिस के केंद्रीय सूरक्षा बल भी अपने हाथ कटे हुए महसूस करेगा और परिणाम स्वरूप ज़्यादा सहायता नहीं कर पायेगा। सबसे बड़ा अंतर तब देखने को मिलेगा जब इन मुद्दों का राजनीतिकरण नहीं होगा और एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप की बजाये एकसार हो कर इन परिस्थितियों का सामना किया जायेगा।

Sunday, June 13, 2010


छोटू भी जुटा तैयारियों में

अभी पिछले हफ्ते की ही बात है जब मैं अपने कुछ दोस्तों के साथ एक छोटे से ढाबे पर बैठे थे। हम वहां चाय पीने के लिये गये थे। हमने चार चाय आडर करी। 15-20 मिनट बीत जाने के बाद भी जब चाय सामने नहीं आयी तो मेरे एक मित्र ने आवाज लगाई, ‘‘छोटू चाय का क्या हुआ’’? आवाज सुनते ही चाय ट्रे में रख कर वो हमारे पास ले आया और बोला, ‘‘सर सारी फार दी डीले सर’’। उसके जाने के बाद बाकियों ने तो उसकी बातों पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया लेकिन मेरे दिमाग में उसकी बातें कौंधने लगी। मैंने उसे फैरन बुलाया और अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिये पूछ पडा कि ‘‘तूने ये अंग्रजी बोलना कहां से सीखी’’? मुझे और हैरानी हुई जब उसने इसकी वजह बताई। उसनक कहा ‘‘सर मैं भी कामनवेल्थ गेम्स की तैयारी कर रहा हूं।’’ मैंने पूछा ‘‘मतलब’’? उसने फिर जवाब दिया ‘‘सर अक्टूबर में गेम्स हैं ना।’’ मैंने कहा ‘‘तो’’? ‘‘कामनवेल्थस गेम्स के दौरान जब खिलाडी मेरे दुकान पर चाय पीने आयेंगे तो उनसे अंग्रजी में ही बात करनी होगी ना,’’ उसने कहा। मैंने अपने मन में कहा कि देखो कहां एक तरफ दिल्ली सरकार गेम्स के अपनी एंडी चोटी एक किये हुये है वहीं ये भी अपनी ओर से प्रयास कर रहा है इस उम्मीद में कि जब खिलाडी उसके दुकान में आयेंगे तो वह उनसे अंग्रजी में बात करेगा। मगर उस नादान को ये नहीं पता कि उसका यह सपना कभी पूरा नहीं होगी क्योंकि दिल्ली सरकार ने बाल श्रम के खिलाफ अपनी आसतीन चढा रखी है। सरकार का यह अंदेशा है कि गेम्स के दौरान बाल मजदूरों की मांग और बढेगी और उसी अनुसार बाल शोषण भी।

यह भी बताते चलें कि सरकार ने नियम बनाया था कि हर कंस्ट्रक्शन साइटों पर कंस्ट्रक्शन कम्पनीयां मजदूरों के बच्चों के लिये के्रच का इ्रतजाम करेगी लेकिन साइटों पर हमेशा इस नियम की अंदेखी की जाती रही और इसके खिलाफ सरकार ने भी कोइ ठोस कदम नहीं उठाये। नतीजतन मजदूरों के बच्चे या तो सडकों पर भीख मांगने लगते हैं या तो वह भी अपने माता पिता की तरह मजदूरी करने लगे। गरीब माता पिता भी उन्हें ऐसा करने से नहीं रोकते क्योंकि उनका बच्चे भी घर में चार पैसे कमा के लाते हैं।

लेकिन अब जब कामनवेल्थ खेल दिल्ली के दरवाजे पर दस्तक देने के तैयारी में है, दिल्ली सरकार को बाल श्रम रोकने की सुध आयी है। यह भी देखने वाली बात होगी कि जहां सरकार दिल्ली को अमीरों का शहर बनना चाहती है वहीं खेलों के दौरान दिल्ली का गरीब चेहरे को कहां तक छिपाने में कामियाबी मिलती है।

Saturday, June 12, 2010


भोपाल गैस कांड पर ब्लाग जगत एक

भोपाल गैस कांड पर जब फैसला आया तो पीडितों समेत सभी छुब्ध हुये। इसका असर अखबारों, चैनलों पर तो खूब देखने को मिला जहां पर अपने अपने तरीके से विरोध जताया गया। इस कांड की आंच ब्लाग जगत भी पहुची और वह भी इससे अछूता न रह सका। अपने अपने ब्लागों में लोगों ने अपने अपने शैली में सरकार और न्याय व्यवस्था को खूब बखिया उधेडी। आरोपी एंडरसन और यूनियन कार्बाइड को कटघरे में लाने का एक स्वर में मांग की जिससे उसे सजा दिलाई जा सके। इसके साथ ही तब और अब की सत्तारूढ पार्टी कांग्रेस के प्रधान मंत्री राजीव गांधी की भूमिका पर भी सवालिया निशान लगाया है। देखने वाली बात यह होगी कि मीडिया, लोगों और ब्लागर्स की आवाज सरकार के कानों तक पहुंचती है कि नहीं।

मैं दैनिक भास्कर पर

Friday, June 11, 2010


भोपाल गैस कांड और ग्लोबल मीडिया की लताड

भोपाल गैस कांड पर जबसे फैसला आया है तब से सरकार पर भारत समेत पूरे विश्व के मीडिया की भौएं तिरछी हो गई हैं। भरतीय मीडिया ने तो अपना विरोध जताया ही है और सरकार और कानून व्यवस्था को जम कर खरीखोटी सुनाई है मगर अब इस मामले पर विश्व मीडिया का विरोध भी सामने आया है। ग्लोबल मीडिया ने इस मसले पर सरकार के रवैये को संवेदनहीन करार देते हुए कडी निंदा की है। उन्होंने आरोप लगाया है कि सरकार जानबूझ कर कारपरेट जिम्मेदारी जैसे मसले पर भ्रामक रूख अपनाये हुए है जिससे कि विदेशी निवेशकों को निवेश हेतु ललचाया जा सके।

घटना के लगभग 26 साल बाद आये फैसले को नाकाफी बताते हुए इसे एक भद्दा मजाक बताया है। अंतराष्टीªय मीडिया का कहना है कि इसकी पूरी जिम्मेदारी सरकार और न्याय व्यवस्था कि है। कइ्र्र अख्बारों ने इस पूरे मामले को विवादित परमाणु दायित्व बिल के साथ जोड कर भी देखा है। आरोप यह भी लगाये गये है कि सरकार ने इस मामले पर लचर रूख अपना कारपोरेट दायित्व पर नरमी इस लिये बारती है ताकि विदेशी कंपनियों को भारत में निवेश करने के लिये ललचाया जा सके।

देखा जाये तो अंतराष्ट्रीय मीडिया का कारपोरेट दायित्व पर नरमी का आरोप सही लगता है क्योंकि भारत साढे नौ फीसदी की सालाना विकास दर पर चल कर एक महाशक्ति बनने का सपना संजोये बैठा है वह पूरा नहीं हो सकता है। विदेशों से जितना अधिक निवेश करेंगे भारत को उतना अधिक विदेशी मुद्रा मिलेगी, लोगो को रोजगार मिलेगा और धीरे धीरे भारत विकास के पथ पर आगे बढता रहेगा। मगर विकास के लिये इतनी बडी कीमत चुकाना क्या सही है? सरकार को उन बच्चों पर जरा सी दया नहीं आयी जिन्होंने अभी दुनिया भी नहीं देखी और उससे पहले ही लौ बुझ गई? सरकार लोगों की हितैशी बनती है तो फैसला एंडरसन के पक्ष में कैसे चला गया। इसका सीधा सीधा अर्थ तो यही निकलता है सरकार का सबकुछ किया एक ढोंग के अलावा कुछ नहीं है।

भोपाल गैस कांड

26 साल के लंबे इन्तेजार के बाद जब भोपाल गैस कांड का फैसला आया तो पीडितों समेत सभी लोगों के होश ही फक्ता हो गये। जिस हादसे को इतिहास के सबसे भयावह हादसों की संज्ञा दी गई हो और जिसमें 15000 से अधिक जाने लील ली गई हों उसके दोषियों को महज दो साल की सजा सुनाई गई है। हद तो तब पार हो गई जब दोषियों को जमानत पर रीहा भी कर दिया गया। अगर इन सब के बाद सरकार कुछ क्षण के लिये ही सही कहीं मुहं छिपा कर बैठ जाये तो इसे ईमानदार प्रतिक्रिया कहने में गुरेज नहीं होनी चाहिये।

इस मामले पर अगर न्यायविदों की मानें तो इस तरह की घटनाओं के लिये कानून का अभाव है, जिसके तहत अभियुक्तों को सजा मिल सके। लेकिन जो भी हो इस मामले में जांच एजेन्सी सीबीआई और सरकार के नकारात्मक रूख पर सवालिया निशान जरूर लगाया है कि क्या सरकार की नजरों में लोगों की जान की कोई कामत नहीं है। अगर है तो मुख्य आरोपी वारेन एंडरसन को मुल्क छोडने कैसे दिया या यूं कहें तो भगाया कैसे? सवाल इस पर भी खडा होता है कि न्यायलय में केस फाइल करने से पहले मामला धारा 304 (ए) के अंतर्गत दर्ज किया था लेकिन जब मामला न्यायलय में पहुंचा तो उसे धारा 304 (2) के अंतर्गत बना पेश किया गया जिसमें अधिक्तम सजा 2 साल की है।

लेकिन सबसे मजेदार बात तो यह रही कि 15 हजार से अधिक लोगों की मौत पर जो लोग पिछले 25 वर्षों से चुप थे, उन्हें फैसला आने के बाद एक दूसरे पर छींटा कशी करते और सफाई देते देखना दुर्भाग्यपूर्ण है। मामले से जुडे सीबीआई के एक भूतपूर्व अफसर का कहना है कि विदेश मंत्रालय के स्पष्ट निर्देश के वजह से उन्होंने मुख्य आरोपी एंडरसन के प्रत्यर्पण का मामला आगे नहीं बढाया। इसके जवाब में तब और अब की सत्तारूढ पार्टी कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और मौजूदा कानून मंत्री विरप्पा मोइली ने कहा कि बौतर जांचकर्ता अगर वे चाहते तो किसी भी दबाव की परवाह किये बगैर अपना काम आगे बढा सकते थे। जैसा मुंबइ्र्र हादसे को ब्लैक फ्राईडे के नाम से जाना जाता है वैसे ही 7 जून, 2010 को भी अपनी मानवता के खिलाफ के रूप में याद किया जाये तो यह कोई अतिशियोक्ति नहीं होगी।

इस मामले को तत्कालीन चीफ जस्टिस आफ इंडिया ए0 एम0 अहमदी ने कार हादसे की तरह देख व्यंग सरीखे रखने की कोशिश की है। उनके अनुसार यदि किसी कार हादसे में किसी की मौत हो जाती है (जब कार ड्राइवर कार चला रहा हो) तो गलती उनकी नहीं कही जा सकती है। इस तरह की बयान बाजी और मामले पर फैसले के बाद मुख्य अभियुक्त एंडरसन को लेकर सरकार का लचर रवैये पर पीडितों के हालात पर एक शेर याद आता है कि
‘मेरा मुंसिफ ही मेरा कातिल है
मेरे हक में फैसला क्या देगा।’

Sunday, June 6, 2010


अरूंधती राय का नक्सलियों का समर्थन

मशहूर लेखिका अरूंधती राय को कौन नहीं जानता है, मगर उनके विचारों पर मुझे हैरानी होती है। मैं अभी तक उन्हें काफी गंभीर महिला समझता था मगर उन्होंने जब से बतौर नक्सलियों का पैरोकार बन जब से उनका समर्थन किया है, मुझे उनके बारे में अपनी राय पर पुनः विचार करने पर मजबूर कर दिया है। उन्होंने अपने बयान में कहा कि नक्सलियों का समर्थन करती है क्योंकि उनके विचार से वर्तमान परिपेक्ष में गांधीवादी तरीके से समस्याओं का हल नहीं निकाला जा सकता है। उन्होंने यह भी कहा कि अगर इसके लिये जेल भी भेज दिया जाये तो भी वे नक्सलियों का समर्थन करना नहीं छोडेंगी।

अभी तक नक्सलियों के समर्थन के तार नेताओं से जोडे जाते रहे हैं लेकिन यह पहला मौका है जब ऐसे लोग नक्सलियों का खुलेआम समर्थन कर रहे हैं। इन लोगों को नक्सलियों का समर्थन करने से पहले ये जरूर सोचना चाहिये कि वे किनका समर्थन कर रहे हैं। ये वही हैं जो खुद को आम लोगों का समर्थक कहते हैं मगर ज्ञनेश्रव्री रेल हादसे कर उन्हीं बेकसूरों को मौत के घाट उतारते हैं। इसी रेल हादसे में करीब 150 से ज्यादा लोग मारे गये थे और करीब 200 से अधिक लोग मारे गये थे। सबसे मजेदार बात ये कि बाद में नक्सलियों का बयान भी आया कि उनसे भूल हो गयी थी। वे माल गाडी उडाना चाहते थे लेकिन भूलवश ज्ञनेश्रव्री एक्प्रेस उड गयी। वे अपनी गलती के लिये क्षमा प्राथी हैं। ये तो वैसी बात हो गयी जब छोटे बच्चे कोई गलती करने के बाद में माफी मांग लेते हैं। लेकिन कोई नक्सलियों से पूछे कि उन परिवारों की भरपाई कैसे होगी जिनके परिवार के लोग बेवजह ही अपनी जान गवा बैठे। ये रक्त पात और हिंसा तुम छोड क्यों नहीं देते?

मैं ये नहीं कहता कि नक्सलियों ने अपने मर्जी से हाथों में हथियार उठे हैं। यकीन्न वे प्रशासन और सरकार से खिन्न हैं और उनके अनुसार हथियार उठाने के अलावा कोई और रासता नहीं है। मगर हर समस्या का हल बंदूक से नहीं निकलता। ऐसा कर के वे खुद को सरकार के खिलाफ खडा कर रहे हैं और अपने दमन की वजह खुद बन रहे हैं। मैं इस बात को ऐसे समझाना चाहुंगा कि अगर हर मसले का हल गोली होती तो कश्मीर मसला कबका हल हो चुका होता और नतीजा किसके पक्ष में होता ये सबको पता है।

Saturday, June 5, 2010


ओपनिंग और क्लोजिंग देखना होगा महंगा

अगर आप कामनवेल्थ गेम्स के ओपनिंग और क्लोजिंग सेरेमनी देखने के इच्छुक हैं तो आपको अपनी जेब थोरी ज्यादा हल्कि करनी होगी। ये इस वजह से है कि ओपनिंग सेरेमनी के टिकट की न्यूनतम दर 1000 रूपये और अधिकतम टिकट की दर 50000 से लेकर 1,00,000 रूपये तक हो सकती है। वहीं समापन समारोह में टिकटों की दर 250 से 500 तक हो सकती है जबकि खेल प्रतियोगिताओं के लिये न्यूनतम 50 रूपये और अधिकतम 1000 रूपये रखी गयी है।

खेलों के लिये टिकटों की औपचारिक बिक्री तेजेन्द्र खन्ना आज से शुरू करेंगे और संभवतह् पहला टिकट मेयर को दिया जायेगा। कुल 17 लाख टिकटों की बिक्री का लक्ष्य रख गया है। इसकी शुरूआत आनलाइन टिकटिंग से होगी और बाद में ये टिकटें आईआरसीटीसी की वेबसाइट पर और सेंट्रल बैंक आफ इंडिया की कुछ शाखाओं पर बेची जायेंगी। यही नहीं, जिस दिन का टिकट होगा, उस दिन टिकट धारक डीटीसी और मेट्रो में मुफ्त में यात्रा कर सकेंगे।
पहले बीएमडब्लू और अब मर्सिडीज

पहले दिल्ली में बीएमडब्ल ने लोगों की जान ली और इस बार ये घटना को अंजाम एक स्पोट्र्स मर्सिडीज ने दिया। ये हादसा साउथ दिल्ली में सामने आया जब एक टैक्सी को एक स्पोट्र्स मर्सिडीज ने टक्कर मार दी। टक्कर इतनी जोरदार थी कि हादसे में दोनों कारों के परखच्चे उड गये। इस घटना में एक 28 वर्षी महिला की मौत हो गयी। मर्सिडीज बीएसपी से कांग्रेस में शामिल हुए नेता कंवर सिंह तनवर की है और कार उनका बेटा दिनेश चला रहा था। हादसे के वक्त दिनेश के साथ एक महिला भी मौजूद थी। हादसे के बाद दोंनों मौकाये वारदात से फरार हो गये थे मगर पुलिस ने दिनेश को गिरफतार कर लिया है।

यह वाक्या बुधवार देर रात 2 बजे साउथ दिल्ली के आर के पुरम इलाके में उस वक्त हुआ जब टैक्सी अफ्रीका एवेन्यू पर दूसरी रेड लाइट से दायें मंडी और तभी तेज रफतार आ रही मर्सिडीज ने टक्कर मार दी। पुलिस के मुताबिक हादसे के वक्त मर्सिडीज तकरीबन 150 किमी0 प्रति घंटा रही होगी। कार सवारों की जान कार में लगे एयर बैलून ने बचा ली। हादसे के करीब डेढ घंटे तक टैक्सी ड्राइवर नरेश और युवती घायल अवस्था में पडे रहे थे। रात करीब 3ः35 बजे वहां से गुजर रही पीसीआर वैन ने दोनों को घायल अवस्था में एम्स ट्रामा सेंटर पहुंचाया जहां बाद में युवती को मृत घोष्ति कर दिया गया।

ये देखने वाली बात होगी कि इस मामले में दोषी को सजा कितनी जल्द मिलती है क्योंकि ये मामला एक मंत्री के बेटे का है और मंत्री भी ऐसा वैसा नहीं है बल्कि पिछले विधान सभा चुनाव में भाग लेने वाला सबसे अमीर उम्मीदवार कंवर सिंह तनवर का है। कहीं ऐसा न हो कि मंत्री जी अपनी कुर्सी के प्रभाव से मामले को ठंडे बस्ते में डलवादें।

Friday, June 4, 2010


ज्ञानेव्श्ररी एक्सप्रेस पर नक्सली हमला

आज नक्सलियों ने मानवता की हदों का तब पार कर दिया जब एक ट्रेन हादसे में 150 से अधिक लोग मारे गये और 200 से ज्यादा घायल हो गये। ये नक्सली कहर ज्ञानेश्रवरी एकप्रेस पर अब तक का सबसे बडा नक्सली हमला है। ये ट्रेन गुरूवार रात 11 बजे मुंबई के लिये रवाना हुई थी मगर जैसे ही यह माओवादी प्रभावित खेमाशोली रेलचे स्टेशन को पारकर झाडग्राम थाना अंतर्गत राजबंध क्षेत्र में पहंुची, वैसे ही यह वारदात हुआ। इस हादसे में ट्रेन की 13 बोगियां पटरीयों से उतर गई और डाउन ट्रैक पर आरही माल गाडी से भिडंत हो गई। इस भिडंत का खासा असर कोच संख्या एस 3, एस 4, एस 5, एस 6 और एस 7 पर पडा जोकी बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हो गई। इनमें से भी कोच संख्या एस 3, एस 4, और एस 5 बहुत ज्यादा प्रभावित हुये जिनमें से किसी के भी बचने की उम्मीद बहुत कम थी। घटना के बाद दक्षिण-पूर्व रेलवे ने बचाव का काम शुरू कर दिया था और जिसमें बाद में चायू सेना ने भी अपना योगदान दिया।

ट्रेन की पटरी को देख कर यह कयास लगाया जा रहा है कि पटरी को बम धमाके से उडाया गया है और साथ ही यह भी कयास सामने आया कि ट्रैक को उडाया नहीं गया है बल्कि फिश प्लेट गायब की गई है। ट्रेन के ड्रइवर का भी यह कहना था कि उसने भी धमाके की आवाज सुनी थी। मगर जो दृश्य टीवी पर दिखाये जा रहे थे उन्हें देख कहीं से ये नहीं लग रहा था कि ट्रैक कों धमाके से उडाया गया है बल्कि यह लग रहा था कि पटरी को काटा गया है और फिश प्लेट को गायब की गयी है। इस मसले की जांच के लिये रेल मंत्री ममता बनर्जी ने पूरे प्रकरण की जांच सीबीआई से करवाने की बात भी कही।

मगर यह बेहद अफसोस की बात है कि जहां घायलों और मृतकों से सहानभूति और नक्सलियों पर नकेल कसने का प्रयास किया जाना चाहिये था वहीं इस घटना को मुद्दा बना कर सियासत खेली जा रही है और साथ ही इस वारदात के बाद बेतुके उपायों पर काम किया जा रहा है। बेतुके उपायों से मेरा तात्र्पय सरकार के उस फैसले से है जिसमें कहा गया है कि सरकार रात को नक्सली इलाकों में ट्रेनें नहीं चलाने पर विचार कर रही है। इससे सीधा सीधा अभिप्राय यह निकलता है कि अगर कोई हादसा सूरज की किरणों के नीचे होगा तो सरकार ट्रेनें दिन में भीनहीं चलायेंगी। अर्थत ट्रेनों का रात में चलना तो पहले से ही बंद है और अगर दिन में कोई हादसा होता है तो ट्रेनें दिन में भी नहीं चलेंगी जिससे कि पूरी रेल यातायात ठप हो जायेगा। मेरे विचार से सरकारों और मंत्रियों को बचपना छोड अपने विवेक से काम लेना चाहिये।

वहीं इस मामले को सीयासी जामा पहनाते हुये रेल मंत्री ममता बनर्जी ने वाम दलों पर राजनीतिक षड्यंत्र रचने का आरोप लगाया है। लेकिन जब यह पहले ही हो चुका है कि ये हमला नक्सलियों द्वारा किया गया है तो फिर मामता बनर्जी ने इस हादसे को सियासी रंग क्यों देने की कोशिश कर रही हैं जब कि नक्सली हमले की धमकी पहले ही दे चुके थे। लगता है कि वे कुर्सी की शक्ति ने उन्हें इस कदर अंधा कर दिया है कि चे अब उसे किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहती हैं और शायद यही सोच कि इससे पहले वाम दल और विपक्ष उन्हें घेरे उन्होंने पहले हमला बोल दिया।

Tuesday, May 18, 2010


टी-20 वर्लड कप नहीं तो अजलन शाह कप जीता

भारत भले ही टी-20 वल्र्ड कप पर कबजा नहीं कर पाया मगर हाकी मौजूदा चैंपियन ने सुलतान अजलन शाह जीत लिया है। भारत को यह कप साउथ कोरिया के साथ बांटना पडा। इन दोनों टीमों के बीच फाइनल मैच शुरू हुआ लेकिन छह मिनट बाद ही तेज बारिश के वजह से रोकना पडा। काफी देर के इंतजार के बाद आयोजकों ने मैच समाप्ति की घोषणा कर दी। 1983 में शुरू हुये इस टूर्नामेंट में यह पहले मौका था जब दो टीमों को संयुक्त रूप से विजेता घोषित किया गया है। इसके साथ ही भारत के राइट फुलबैक सरदार सिहं को टूर्नामेंट का सर्वश्रेष्ठ खिलाडी घोषित किया गया।

नई दिल्ली स्टेशन पर भगदड से रेलवे की खुली पोल

अभी शुरूआत हुई नहीं कि नई दिल्ली स्टेशन पर व्यवस्था चारो खाने चित नजर आई। रवीवार को रेल्वे स्टेशन पर भगदड मच गई जिसमें 2 लोगों की मौत हो गई और 8 घायल हो गये। यह हादसा दो ट्रेनों सप्तक्रांति एक्सप्रेस और विक्रमशिला के यात्रियों के बीच ट्रेन पकडने की हडबडी की वजस से सामने आया। दरअसल दोनों ट्रेनों के आने का समय तकरीबन एक ही है। दोनों के आने से पहले घोषणा हुई कि सप्तक्रांति प्लेटफार्म नं0 13 पर आयेगी और वक्रमशिला प्लेटफार्म नं0 12 पर। दोनों ट्रेनों के यात्री नीयत लेटफार्म और फुटओवर ब्रिज पर ट्रेन की आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। लेकिन ट्रेनें ठीक उसकी उलट प्लेटफार्मों पर आयी। यानीकि सप्तक्रांति प्लेटफार्म नं0 12 और प्लेटफार्म नं0 13 पर आगई। दोनों ट्रेनों के छूटने का समय करीब पौने तीन बजे था। इसी लिये लोगों के ट्रेनों को लेकर अफरातफरी मच गई और यह हादस हो गया। इस हादसे पर रेल मंत्री मामता बैनर्जी का बयान आया, ‘‘यह प्रशासन की नाकामी नहीं है, इसके लिये लोग भी जिम्मेदार हैं। ऐसे हालात को कंट्रोल करना कठिन है।’’

हादसे के प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि जिस फुटओवर ब्रिज की सीढीयों पर यह हादसा हुआ, वहां तिल रखने की जगह भी नहीं थी। दरअसल, इस स्टेशन का यही एक ऐसा फुटओवर ब्रिज है, जो यात्रियों का सबसे ज्यादा बोझ ढोता है। चुंकि यही फुटओवर ब्रिज दोनों सिरों पर (अजमेरी गेट और पहाड गंज) की मेन एंट्री है इसलिये इस पर सबसे ज्यादा भीड होती है। हालांकि निजामुद्दीन एंड पर भी एक फुटओवर ब्रिज है लेकिन वह भी अधुरा है। यही वजह है कि उसका इस्तेमाल नहीं हो पाता है। लगभग पांच साल पहले जब इस तरह भगदड मची थी, तब इसकी जांच के लिये एक कमेटी का गठन किया गया था। इस कमेटी ने अपनी रीपोर्ट में कहा था कि आधे अधूरे फुटओवर ब्रिजों का निर्माण कार्य पूरा किया जाये जिससे कि 1 नं0 फुटओवर ब्रिज पर यात्रियों के बोझ को कम किया जा सके। लेकिन पांच साल बीत जाने के बाद भी इसका निर्माण कार्य अभी तक चल रहा है।

राजनीति का नया दाव - जाती आधारित जनगणना

मैं यू0 पी0 के एक शहर गोरखपुर से ताल्लुक रखता हूं। यह शहर बडा तो है मगर राजधानी लखनऊ की तरह अखबारों की सुर्खियों में नहीं रहता है। लेकिन राजनीतिक हल्कों में शहर को काफी तवज्जो मिलती है। यहां अक्सर लोग आपको घरों में आफिस के खाली वक्त में और चाय की दुकानों पर तो खास कर लोग राजनीति पर अपने विचारों का आदान प्रदान करते मिल जाते हैं। जब मैं छोटा था तब मैं ये सोचा करता था कि बडों को कोई और काम नहीं है क्या जो र्सिफ राजनीति पर बातें करते हैं पर जब मैं बडा हुआ तो कुछ मुद्दों पर मैंने भी खुद को राजनीति पर बात करते पाया। मैंने र्सिफ खुद को ही नहीं बल्कि अपने दोस्तों और अपने ही उम्र के कई और लडकों को राजनीति पर विचार विर्मश करते पाया।

अगर मैं र्सिफ शहर की बात न करके पूरे राज्य की बात करूं तो ये राज्य संप्रदायिक्ता में बंटा हुआ है। इसी वजह से राज्य में संप्रदायिक दंगे भडकाना कोई कठिन कार्य नहीं है। अक्सर ये दंगे राजनीतिक लाभ के लिये भडकाये जाते हैं। इस बात को लोग भी जानते हैं मगर सब के बावजूद दंगे की आग से खुद को बचा नहीं पाते हैं और इसी आवेग में आ कर वो कुछ ऐसा कर बैठते हैं जो वे नहीं करना चाहते थे या उल्हें नहीं करना चाहिए था। इस पर बाद में राजनीति भी खूब होती है और विपक्ष को बैठे बिठाये मौजूदा सरकार के खिलाफ एजेंडा मिल जाता है। इस एजेंडे को चुनाव के दौरान मुद्दा बनाकर खूब राजनीतिक रोटियां भी सेकी जाती हैं।

इस जाति आधारित राजनीति को और बढावा देने के लिये कुछ पार्टियों ने जाति आधारित जनगणना करवाने का प्रस्ताव सरकार के सामने रखा जिसे सरकार ने सिरे से खारिज कर दिया। इस पर पार्टी नेताओं ने विरोधा प्रर्दशन किया और संसद की कार्यवाही बीच में ही छोड कर बाहर चले आये। उन्होंने मीडिया के सामने बयान दिया कि जब देश में विभिन्न जाती के लोग रहते हैं ता जनगणना जाति के आधार पर क्यों नहीं हो सकती? जब यह एक वास्तविक्ता है तो सरकार इसे क्यों नहीं मान रही है?

देखा जाये तो अगर जनगणना जाति के आधर पर की जाये तो इससे ये जरूर मालूम पड जायेगा कि पूरे देश में और विभिन्न राज्यों में रह रहे नगरिक किस जाती में कितनी संख्या में हैं। इस जाति आधारित जनगणना से लोगों को तो लाभ होने की संभावना तो नगण्य है और सीधे तौर पर लाभ राजनीतिक पार्टियों को होगा जो सीधे साधे जाती आधारित राजनीति करती हैं। इसका सरल शब्दों में अर्थ ये निकलता है जो राजनीति पहले वोट बैंक के तौर पर होती थी वह अब जाति आधारित वोट बैंक पर केद्रिंत हो जायेगी। सपाट शब्दों में राजनीति भी अब और गणित आधारित हो जायेगी। अगर कोई पाटी यह देख रही है कि जीत के लिये उनका वोट बैंक कम पड सकता है तो वह चुनाव प्रचार में वोट खीचने हेतु कुछ और लोक लुभावने वादे कर सकती है। मस्लन मायावती की बहुजन समाज पार्टी जो दलितों की पार्टी मानी जाती है (जो धीरे धीरे दलितों के अलावा अब ब्रहमणों आदि पर भी केंद्रित होती जा रही है और जिसका परिणाम पिछले मुख्यमंत्री चुनाव में बसपा के जीत के तौर देखने को मिला) उसके पास सरकारी आंकडा होगा कि उ0 प्र0 में कितने दलित हैं और कितने अन्य जाति के लोगों की संख्या क्या है। मुलायम सिहं यादव की समाजवादी पार्टी जो मुस्लिम वोटों पर आधारित है उसके पास भी मुस्लिमों (अल्पसंख्यकों) की और अन्य जातियों से संबधित सरकारी दस्तवेज होगा। राम मंदिर और हिंदुत्व को मुद्दा बना चल रही भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) हिंदू वोट बैंक और कांग्रेस अपनी जाती आधारित राजनीति खेलेगी। इस तरह की राजनीति में एक विशेष वर्ग को सहूलियत मिलेगी और दूसरा वर्ग सौतेले व्योहार का भावना बढती जायेगी। इसका सीधा असर राज्य सरकारों की नीतियों पर भी पडेगा।

बहुत से नेता इस जाति आधारित जनगणना के पक्ष में एक दूसरे से हाथ भी मिला रहे हैं। वे चाहते हैं कि यह बिल सरकार द्वारा पास हो जाये ताकी उनके हाथ जाति आधारित चाभियां लग जाये और आवश्यक्तानुसार वे राजनीतिक लाभ के लिये इनका इस्तेमाल कर सकें। इससे कुछ ही दिनों में वे लोग जो सरकारी नीतियों से अछूते रह गये, त्रस्त हो जोयेंगे। धीरे धीरे ये भावना उनके अंदर बढती चली जायेगी और हो सकता है कि एक दिन तेलंगाना की तरह लोग जाति आधारित राष्ट्र की मांग कर दें। हमारे राजनेताओं को सोचना होगा कि लोगों को बांटने वाली नीतियों के बजाये उन्हें जोडने वाली बिल बनाये जाये। इन बिलों को भी अपने वेतन वृध्दि के बिल की तरह पूर्ण बहुमत से पारित किया जाये। इसी प्रकार से देश का विकास संभव है अन्यथा ऐसी स्थिति में देश को टूटते देर नहीं लगेगी। हो सकता है जिस देश को हम बडे र्गव से ‘भारत’ कह कर पुकारते हैं उसी राष्ट्र को ‘संयुक्त राष्ट्र भारत’ के नाम से न पुकारना पडे।

Monday, May 17, 2010


अमेरिका के बदले सुर

टाइम्स स्क्वेयर के हमले में पाकिस्तान का नाम आने से अमेरिका बौखला गया था। यहां तक की अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने यहां तक कह डाला था कि अगर इस मामले में पाकिस्तान का नाम की पुष्टि हो जाती है तो उसे इसके गंभीर नतीजे भुगतने पड सकते हैं।

मगर अब पाकिस्तान और आतंकवाद के मुद्दे पर अमेरिका के तेवर बदले नजर आ रहे हैं। जहां उसे पहले धमकी दी जा रही थी वहीं अब पाकिस्तान की सराहना की जा रही है। हिलेरी क्लिंटन का एक और कदम उठाने की जरूरत है। बदले सुर में हिलेरी ने अल-कायदा और उसके चरंमपंथी सहियोगियों के खिलाफ पाकिस्तान कार्यवाही की करते हुए ये बात कही थी।

मगर देखा जाये तो ये बात कुछ हजम नहीं हुई क्योंकि अभी कुछ ही दिनों पहले जो अमेरिका पाकिस्तान को सीधे तौर पर धमकी दे रहा था वही अमेरिका गिरगिट की तरह रंग बदल अब उसकी तारीफ कर रहा है। कहीं सुर में ये बदलाव चीन के वजह से तो नहीं है। क्योंकि जब चीन ने पाकिस्तान को परमाणु सहायता की बात की थी तब भी अंतराष्ट्रिय बिरादरी मौन बनी हुई थी। यहां पर ध्यान देने वाली बात यह है कि जब पाकिस्तान ने अमेरिका को भारत की तरह परमाणु संधि को कहा था तब उसने मना कर दिया था।

हवाला से मिली थी हमले की रकम

दुनिया के चैरहे पर हमले के लिये शहजाद को रकम हवाला के जरिये मुहैया करवाये गये थे। इस बात का खुलासा पाकिस्तान के तीन नगरिकों की गिरफतारी के बाद हुआ है।

एफबीआई ने शहजाद के आर्थिक संपर्कों का पता लगाते हुए पश्चिमोत्तर अमेरिका में एशियाई बहुत लांग आईलैंड, बोस्टन सबर्ब और न्यूजार्सी में छापे मारे हैं। इसी दौरान तीन पाकिस्तानी नागरिकों को गिरफतार किया गया। इनमें से दो को बोस्टन से और एक को मेन शहर से गिरफतार किया गया। अमेरिकी अटार्नी जनरल एरिक होल्डर ने कहा कि ये गिरफतारियां जांच का हिस्सा थी। उन्होंने साथ में यह भी कहा कि ये गिरफतारियां किसी नये खतरे की तरफ इशारा नहीं करते बल्कि इन्हें इस लिये गिरफतार किया गया क्योंकि इनके रिश्ते शहजाद के साथ थे। लेकिन हम यह भरोसे से नहीं कह सकते हैं कि ये रिश्ते कैसे हैं। गिरफतार नागरिकों पर इमिग्रेशन नियमों के उल्लंघन का भी आरोप है।

अमेरिकी अखबार वाशिंगटन पोस्ट के मुताबिक ये गिरफतारियां एक शक्स के पूछताछ के बाद हुई हैं। इस शक्स की पहचान गुप्त रखी गई है और इसने खुद को शहजाद का साथी बताया है।

Sunday, May 16, 2010


अभी नहीं ठंडाया कोबाल्ट-60

अभी तक कोबाल्ट - 60 का मामला ठंडाया नहीं लगता। दरअसल 28 के बाद जब से इस मामले में दिल्ली यूनिवर्सिटी का नाम सामने आया है तब से इस मामले ने और उछाल पकडा है।

इस मामले पर अटामिक एनर्जी रेगुलेटरी बोर्ड (एईआरबी) और दिल्ली पुलिस ने डीयू प्रशासन को एक नोटिस भेजा था। डीयू प्रशासन ने एईआरबी को जवाब दे दिया लेकिन पुलिस द्वारा भेजे गये नोटिस का जवाब अभी तक नहीं आया। हालांकी डीयू प्रशासन ने नोटिस का जवाब देने के लिये थोडा सा वक्त मांगा था जिसे दिल्ली पुलिस ने मंजूर कर लिया था। लेकिन 15 दिन बीत जाने के बाद भी डीयू प्रशासन की ओर से कोई जवाब न पाकर दिल्ली पुलिस ने उन्हें रिमाइंडर नोटिस भेजने का फैसला किया है।

पुलिस के डीसीपी (वेस्ट डिस्ट्रिक) शरद अग्रवाल ने नोटिस डीयू के वीसी से गामा सेल की नीलामी प्रक्रिया के बारे में पूरी जानकारी देने के लिये कहा था। साथ ही साथ पूछा गया था कि इस मामले में एईआरबी की सेफ्टी गाइडलाइंस की अनदेखी क्यों की गई और इसके लिये कौन जिम्मेदार है। पुलिस एईआरबी को भी एक पत्र लिखकर सलाह भी मांगी है कि इस मामाले में रेडियोएक्टिव पदार्थों के उपयोग से संबधित किस किस तरह के कानूनों का उल्लंघन हुआ है। फिलहाल तो इस संबंध में पुलिस ने मायापुरी थाने में केवल लापरवाही से हुई मौतों की धाराओं के तहत केस र्दज किया है, लेकिन यह मामला उतना सामान्य नहीं जितना की दिखता है।

नितिन गडकरी का बेबाक बयान

बीजेपी अध्यक्ष नितिन गडकरी द्वारा लालू और मुलायम पर दिये एक बयान से राजनितिक गलियारों में हडकंप मच गया है। गडकरी ने अपने बयान में सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव और आर जे डी प्रमुख लालू प्रसाद यादव को कांग्रेस और सोनिया गांधी के तलवे चाटने वाला बताया है। उन्होंने कहा कि ‘‘वे शेर जैसे दहाडने की बातें करते थे लेकिन Û Û की तरह सोनिया और कांग्रेस के घर जा कर तलवे चाटने लगे’’। गडकरी ने ये बयान चंडीगढ में एक रैली को संबोधित करते हुए दिया था। अपने बयान में लालू और मुलायम के लिये गडकरी ने अभद्र भाषा का इस्तेमाल किया जिसे लिखना उचित नहीं होगा। इसे भारतीय नेताओं की बदजबानी के रूप में देखें ता ज्यादा उचित होगा। अपने इसी भाषण में गडकरी ने काटौती प्रस्ताव के दौरान लालू और मुलायम के लोकसभा से वाकआउट का जिक्र किया और कहा, ‘‘मुलायम सिंह और लालू प्रासद यादव जो यूपीए और सरकार के विरोध की बातें करते हैं, वे भी सीबीआई के सामने जा कर झुक गये।


फिर आनर किलिंग

मुझे याद है, मैंने अपने बचपन में एक फिल्म देखी थी और जो बाद में अक्सर टी0 वी0 पर भी आने लगी, जिसका नाम था ‘दिल वाले दुलहनियां ले जायेंगे’। इस फिल्म के मुख्य किरदार थे शारूख खान और काजोल। यह एक लव स्टोरी थी जिसकी अधिक्तर शूटिंग पंजाब में दिखाई गई है। इस फिल्म में काजोल एक पंजाबी घर में पैदा होती है जो पिता अमरीश पुरी के देख रेख में चलता है। एक दिन काजोल को शरूख से प्यार हो जाता है। ये बात जब अमरीश पूरी को पता चलता है तो वे अपना बोरिया-बिस्तर समेट पंजाब अपने घर लौट जाते हैं। शारूख भी पीछे-पीछे पंजाब पहुंच जाता है। अंत में अमरीश पूरी काजुल का हाथ शारूख के हाथ में दे देते हैं।

यह फिल्म अपने वक्त की सबसे बडी हिट फिल्म थी जिसने न टूटने वाले कई रीकार्ड बनाये। ये फिल्म बाकी जगहों में भी उतनी ही पसंद आयी जितनी की पंजाब में। यही नहीं बल्कि प्रम प्रसंगों पर बनी बाकी फिल्मों को भी पांजाब में बडा ही पसंद किया जाता रहा है।

मगर सबसे बडी विडम्बना यह है कि जहां एक प्यार की कहानी को पंजाब ने सराहा वहीं दूसरी को हमेशा के लिये खत्म कर दिया और हमेशा के लिये ऐसा घाव दे दिया जिसे भरा नहीं जा सकता। मैं बात कर रहा हंू गुरलीन (19 साल) और अमनप्रीत (25 साल) की। दोनों ने गुरलीन के परिवार के मर्जी के खिलाफ जा कर पिछले महीने हरियाण और पंजाब कोर्ट की सुरक्षा में शादी रचा ली थी। ये बात गुरलीन के परिवार में पिता, भाई, और चाचा को नागवार गुजर और मंगलवार को को उन्होंने गुरलीन को उनके खिलाफ जाने की सजा दे दी। इस में अमनप्रीत की मां कुलजीत गेहंू में घुन की तरह पिस गई। तीनों ने मिल कर गुरलीन और कुलजीत की हत्या कर दी और अमनप्रीत पर भी जानलेवा हमला किया। गुरलीन को तलवार से और कुलजीत को गोली मारी गई जिससे दोनों की मौके पर ही मौत हो गई। पुलिस के अनुसार गुरलीन के गले पर काटे जाने के निशान थे और उसकी अंगुलियां भी काटी गई थी। इसके बाद हमलावरों ने अमनप्रीत को अपना निशाना बनाया और उसे गलियों में दौडा कर उसे गोली मर दी जिससे वह घायल हो गया। बाद में अमनप्रीत को घायल अवस्था में अस्पताल में भरती कराया गया। अमनप्रीत के पिता घर से बाहर गये थे इस लिये वे इस हमले से बच गये। हमलावरों ने अमनप्रीत के बूढे दादा और दादी को छोड दिया।

इस घटना के बाद मेरे जहन में एक गुरलीन और अमनप्रीत की गलती क्या थी जो उन्हें उसकी इतनी बडी सजा मिली। क्या उनकी गलती ये थी कि उन्होंने एक दूसरे से प्यार किया और एक दूसरे को शादी जैसे पवित्र रिशते में बांध ले गये। अगर ये उनकी गलती है तो फिर उन्हें किस बात की सजा मिली? और अगर ये गलती थी तो ये गलती तो सदियों पहले से चली आ रही हैं जिनकी हम अक्सर मिसालें भी दिया करते हैं जैसे- हीर और रांझा, सोनी और महीवाल। प्यार के इस ढकोसले बाजी पर मुझे एक शायर का शेर याद आता है -

‘‘र्भमर कोई कुमुदनी पर मचल बैठा तो हंगामा,
हमारे दिल में कोई प्यार जो पल बैठ तो हंगामा,
अभी तक डूब के सुनते थे हर किस्सा मोहब्बत का,
जो किस्से को हकीकत में बदल बैठा तो हंगामा।’’

ये बात उन लोगों पर सटीक बैठता है जो फिल्मों में तो प्यार को सही मानते हैं मगर उनके पीरवार का कोई व्यक्ति प्यार करता है तो ये बात उनके हलक से नीचे नहीं उतरती। उस वक्त वे दलील देते हैं कि ये सब बातें फिल्मों में ही अच्छी लगती हैं असलियत में नहीं। यहां पर हमें और उन सभी लोगों को दाबारा सोचने की जरूरत है कि क्या वाकई प्यार करना गलत है? कम से कम मैं तो इससे इत्तेफाक नहीं रखता क्योंकि राधा और कृष्ण के रूप में हम प्यार को न जाने कबसे पूजते आ रहे हैं तो हम इसे गलत कैसे मान सकते हैं।

निठारी का दूसरा इन्साफ- कोली को दोबारा फांसी

निठारी के आरती हत्या कांड का फैसला आ गया है। इस मामले में अभियुक्त सुरेंद्र कोली को कोर्ट फांसी की सजा सुनाई है। यह सजा सीबीआई की कोर्ट ने बुधवरा को कोली के खिलाफ यह सजा मुर्रर की। कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि ऐसे अपराध के लिये फांसी की सजा भी कम है। कोर्ट ने 4 मई को कोली को दोषी करार दिया था।

इससे पहले रिंपा हलदर केस में भी कोर्ट ने कोली को फांसी की सजा सुना चुकी है। कोर्ट के इस फैसले से यकीनन आरती के परिवार वालों के जख्मों पर थोडा मरहम तो जरूर रखा होगा मगर उनका कहना है कि असली मुजरिम तो मोनेंदर सिंह पंधेर है जिसे पुलिस और सीबीआई दोंनों ही बचाने की कोशिश कर रहे हैं। 4 मई को आरती के पिता दुर्गा प्रसाद ने कहा था कि वे पंधेर को सजा दिलवाने के लिये सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा भी खटखटा सकते हैं।

Saturday, May 15, 2010


खुद पर आई तो तिलमिलाया अमेरिका

जबसे न्यूर्याक के टाइम्स स्क्वेयर बम हमलों की कडी पाकिस्तान से जुडी है तबसे अमेरिका तिमिला गया है। हलांकि बम को निशक्रिय कर दिया गया था और कोई अप्रिय घटना नहीं होने पाई। पुलिस ने उस शक्स को गिरफतार करने में सफला हासिल कर ली थी जिसने इस घटना को अंजाम दिया था। फैजल शहजाद नाम का यह व्यक्ति पाकिस्तानी मूल का अमेरिकी नागरिक है। पुलिस ने रात में इसे उस वक्त गिरफतार किया था जब यह विमान से दुबई भागने की कोशिश कर रहा था। इसके बाद अमेरिकी विदेश मंत्री हेलरी क्लिंटन का बयान आया ‘‘अगर टाइम्स स्क्वेयर बम हमले के साजिश की जडें पाकिस्तान में पाई जाती हैं तो वह बेहद गंभीर नतीजे भुगतने को तैयार रहे।’’

यहां सोचने वाली बात यह है कि क्या ये वही अमेरिका है जा भारत को पाकिस्तान प्रयोजित आतंकवाद के मसले को बात-चीत से सुलझाने की नसीहत देता रहा है। भारत अमेरिका से काफी पहले से पाकिस्तीनी आतंकवाद का शिकार होता रहा हैं इसमें देश ने नजाने कितने वीर सिपाही और नागरिक खोये हैं। मगर आज जब अमेरिका को उसी के सपोले ने काटा तो क्यों वह उसके दांत तोडने की बात कर रहा है? वह भारत को दिया खुद का उपदेश अपने ऊपर लागू क्यों नहीं कर रहा है?

फतवा - क्या वाकई हक में?

देश की सबसे बडी मुस्लिम संस्था दारूल उलूम देवबंद ने एक फतवा जारी किया है। इसमें कहा गया है कि मुस्लिम महिलाओं का ऐसी किसी सरकारी या नीजी संस्थान में नौकरी करना गैर इस्लामी है, जिसमें महिला और पुरूष को एक साथ काम करना पडता है और महिलाओं को पुरूषों से बिना परदे के बात करनी पडती है। इस फतवे का दूसरे मुस्लिम सेप्रदायों ने भी समर्थन किया है।

इस फतवे से ऐसा लगता है कि मुस्लिम महिलाओं का आगे बढना मुस्लिम पुरूषों को गवारा नहीं है। वे नहीं चाहते कि उनके घर की महिलाये बाहर निकलें और अपनी योग्यता के मुताबिक काम करें। क्योंकि ऐसा तो संभव ही नहीं है कि लोग काम पर निकलें और विपरीत लिंग के व्यक्ति से उनका सामना ना हो।

यहां पर एक सवाल और खडा होता है कि क्या यह फतवा सिर्फ भारत के मुस्लिम महिलाओं के लिये है या फिर सभी मुस्लिम महिलाओं के लिये है। क्योंकि मुस्लमान सिर्फ भारत में ही नहीं रहते बल्कि पूरी दुनिया में रहते हैं। अगर ये फतवा सिर्फ भरतीय मुस्लिम महिलाओं के लिये है और बाकी और देशों में रह रहे मुस्लमानों के लिये नहीं है तो ऐसा क्यों है? ये नाइन्साफी सिर्फ भरतीय मुस्लिम महिलाओं के साथ ही क्यों? और अगर ये फतवा पूरी दुनिया के मुस्लिम महिलाओं के लिये है तो मुझे नहीं लगता कि अमेरीकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा कि पत्नी मिशैल हुसैन ओबामा, निगार खान, गौहर खान, जिया खान, शबाना आजमी, वहीदा रेहमान, सानिया मिर्जा या शेख हसीना पर भी ये फतवा लागू होगा। इसका मतलब ये हुआ कि अबसे मिशैल हुसैन ओबामा अपना काम छोड देंगी और अपने पति के साथ किसी भी देश की यात्रा पर नहीं जयेंगी, निगार खान और गौहर खान जैसी फैशन हस्तियां फैशन जगत से अपना नाता तोड लेंगी, जया खान, शबाना आजमी और वहीदा रेहमान अदाकारी छोड देंगी, सानिया मिर्जा (सानिया मलिक) अब टेनिस खेलना बंद करदेंगी और शेख हसीना राजनीती को हमेशा के लिये अलविदा बोल देंगी। मुझे नहीं लगता कि ऐसा कुछ होने वाला है। चूंकी ये सही है कि ऐसा कुछ नहीं होने वाला है तो ऐसा फतवा लाने की क्या जरूरत है जिनसे सिर्फ महिलाओं का शोषण हो। क्यों न ऐसा फतवा लाया जाये जिससे मुस्लिम महिलाओं का उत्तथान हो और उन्हें आगे बढनें में सहायता मिले।



एक साल में कसाब को फांसी संभ्व - मोइली

केन्द्रिय कानून मंत्री विरप्पा मोइली ने मंगलवार को एक टीवी चैनल में दिये अपने इन्टरव्यू में कहा कि कसाब की फांसी एक साल में संभ्व है। उन्होंने बताया कि अगर कसाब अपील भी दाखिल करता है तो भी उसके मामले को तेजी से निप्टाया जायेगा।

कानून मंत्री के बयान से यह लगता है कि वे भी कसाब के फांसी के पक्ष में है और चाहते हैं कि इससे पहले कि यह मामला भी अफजल गुरू के मामले की तरह राजनीतिक पछडे में पड जाये, दोषी को सजा मिल जानी चाहिये।

Wednesday, May 12, 2010


ऐसा क्यों है?

शीला दीक्षित को धमकी देने वाले शक्स को दिल्ली पुलिस ने दो दिनों के अन्दर गिरफतार कर लिया। पुलिस के अनुसार उसका नाम वीर सिंह है और उसने ये धमकी भरे फोन नरेला से चोरी किये फोन से किया था। पुलिस के अनुसार र्फश विहार निवासी ने सोचा था कि अगर वह चोरी के फोन से धमकीयां देगा तो वह पकडा नहीं जयेगा पर ऐसा हुआ नहीं और वह पकडा गया। इस कारनामें के बाद पुलिस खुद की पीठ जरूर थपथपा रही होगी। कहीं न कहीं इस बात की शाबाशी शीला दीक्षित भी पुलिस को इस बधाई का पात्र मान रहीं होंगी की पुलिस बडी ही तत्परता के साथ उन्हें फोन पर धमकी देने वाले शक्स को पकड लिया मगर सवाल यहां इस बात का उठता है कि अगर यही कुछ किसी व्यक्ति या यूं कहें कि किसी आम आदमी के साथ होता है तब पुलिस की ये तत्परता कहां चली जाती है। क्या आम आदमी यह समझे कि पुलिस सिर्फ राजनेताओं, उनके सगे संबधियों, रूसूख दार लोगों के लिये ही काम करती है और जब एक आम आदमी अपनी शिकायत लेकर पुलिस के पास जाता है तो पहले तो उसकी कोई सुनता नहीं। अगर उस बेचारे पर किसी पुलिस वाले को तरस आ गया तो एफआईआर तो र्दज हो जयेगी पर उसकी सुनवाई नहीं होगी। इसके लिये बडा ही साधरण सा उदाहरण फोन चोरी होने कि शिकायत दर्ज कराने की। अगर किसी का फोन चोरी हो गया है तो उसे सादे कागज पर ये लिखना पडता है कि उसका फोन चोरी नहीं हुआ है बल्कि गुम या गायब हुआ है। अगर कोई यह लिख के भी लेजाता है कि उसका फोन चोरी हुआ है तो मौके पर मौजूद वर्दी धारी चोरी को काट कर गायब लिखने को कहता है। ये जानकारी सिर्फ सादे कागज में ही रह जाती है, इसे रजिस्टर में चढाया नहीं जाता है। बस आवेदन पत्र पर मोहर लगाके दे दी जीती है। आगर आप खुशनसीब तो मौके पर मौजूद वर्दीधारी आपसे पैसे नहीं मांगेगा वरना कई जगहों पर मोहर मारने के भी पैसे देने पडते हैं। यह मोहर लगा आवेदन पत्र इस बात का सबूत है कि आपकी शिकायत पुलिस ने सुन ली है। अगर पुलिस सर्विलांस के जरिये अपराधी तक पहुंच सकती है तो यही सुविधा आम नागरिक के लिये क्यों नहीं है।

Sunday, May 9, 2010


मै भीगा परदेश में,
भीगा मां का प्यार,
दिल ने दिल से बातें की,
बिन चिट्ठी बिन तार।

आज एक खास दिन है। आज उस व्यक्ति का दिन है जिसने मुझे जन्म दिया है। दूसरों में कहा जाये तो आज मां का दिन है। मां का प्यार करने का दिन। आम दिनों में हम सभी अपने कामों में व्यस्थ रहते हैं और इस बीच अक्सर मां की अन्देखी कर बैठते हैं उन्हें वक्त न दे के। आज का दिन होता है कि हम उस शक्स को दें जिसने अपनी जिन्दगी हमें इस काबिल बनाने में बिता दी की आज हम दुनिया के साथ कंधे से कंधा मिला कर चल रहे हैं। आज का दिन है उस मां को प्यार करने का जिसने हमारी एक जिद को पूरा करने के लिये अपनी कई जरूरतों को पूरा नहीं किया। हमारे चेरहे पर खुशी लाने की खातिर अपने कई आसूओं को पी गई और हमें पता भी नहीं चलने दिया और हम नादान यह ही समझते रहे कि मां खुश है। मगर आज का दिन मां के साथ बिताने का मौका कुछ ही खुश नसीबों को मिलता है, उन्हें नहीं जो मां से काफी दूर किसी दूसरे शहर में बैठे अपने लैपटाप पर इसे लिख रहें हैं और पेज पर लिख रहे शब्दों को बार बार इस उम्मींद से छू रहे हैं कि कोई तो शब्द मां को कोमल छाव का एहसास तो देगा। पर ये तो र्सिफ शब्द हैं, अपनी भावनाओं से भरी बातों से इन्हें पहले पुरा वक्य और बाद में पूरे ब्लाग की शक्ल में ढाल रहा हूं। इस विश्ेाष दिन का मेरी जिन्दगी में बडा ही खास महत्व रहा है और यकीन्न औरों की जिन्दगी में भी होगा।

मातृ दिवस का इतिहास

मातृ दिवस के इतिहास सदियों पुराना है और प्राचीन यूनानियों, जो उत्सव आयोजित करने रिया सम्मान के बार में वापस चला जाता है, देवताओं की माँ. जल्दी ईसाई रोज़ा के चौथे रविवार को माता का त्योहार मनाया काजोल सम्मान, मसीह की माँ. दिलचस्प है, एक धार्मिक आदेश पर बाद में बढ़ाकर छुट्टी करने के लिए सभी माताओं शामिल हैं, और यह ममता रविवार के रूप में नाम दिया है. अंग्रेजी अमेरिका में बसे colonists समय की कमी की वजह से ममता रविवार की परंपरा बंद. 1872 जुलिया वार्ड Howe में शांति के लिए समर्पित माताओं के लिए एक दिन का आयोजन किया. यह मातृ दिवस के इतिहास में एक मील का पत्थर है.
1907 n, अन्ना एम. (1864-1948) जार्विस, एक फिलाडेल्फिया स्कूल शिक्षक, एक करने के लिए उसकी माँ, Ann मारिया रीव्स जारविस के सम्मान में एक राष्ट्रीय मातृ दिवस सेट आंदोलन शुरू किया. वह विधायकों और प्रमुख व्यवसायियों के सैकड़ों की मदद करने के लिए एक विशेष दिन बनाने के लिए माताओं के सम्मान अनुरोध.पहला मातृ दिवस मनाया एक चर्च अन्ना की माँ का सम्मान सेवा थी. अन्ना बाहर हाथ उसकी माँ की पसंदीदा फूल, इस अवसर पर सफेद incarnations के रूप में वे मिठास, पवित्रता का प्रतिनिधित्व करते हैं, और धैर्य.अन्ना की कड़ी मेहनत के अंत में वर्ष 1914 में बंद का भुगतान किया है, जब राष्ट्रपति वूड्रो विल्सन मई में माताओं के सम्मान में राष्ट्रीय अवकाश के रूप में दूसरे रविवार की घोषणा की.