Friday, August 20, 2010



क्योंकि कुर्सी छूटती नहीं मुझसे



क्योंकि कुर्सी छूटती नहीं मुझसे
एक यही है जो कभी रूठती नहीं मुझसे
मैं बैठा रहूं यी नहीं, इसका मोह जाता नहीं 
अगर ना रहूं इस पर, ये पूछती है मुझसे

तुम फिर कब आओगे, फिर कब आओगे
भ्रष्टाचार के नये दीये फिर कब जलाओगे
जब तक हो चूस लो खून जनता का
अगर चले गये तो प्यास कैसे बुझाओगे

क्या लेना तुम्हें अपने राष्ट्र से
कानून अपना तो डरना किस बात से
जो उठे खिलाफ उसे तुम पिसवा देना
वो हिल्दू या मुस्लिम, तुम्हें क्या लेना जात से

कौन मरा 62,75,2000 में, क्या लेना उससे
जो मुझे पैसे दे, मुझे काम है उससे
मेरा भी घर है, परिवार चलाना है मुझे
जो वेतन है, क्या होता है उससे

देश भले गर्क में जाये, ईमानदारी न होगी मुझसे
अरे ऐसा कुछ बताओ, जो हो जाये मुझसे
मेरा तो बस नाता है राजनीति से
क्योंकि कुर्सी छूटती नहीं मुझसे

Monday, August 16, 2010



लालगढ़ में दिखी ममता

दिन सोमवार, तारीख 9 अगस्त 2010 और जगह माओवादीयों का गढ़ कहे जाने वाला लाल गढ़। केन्द्रिय रेल मंत्री और तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्षा ममता बनर्जी ने लालगढ़ में माओवादियों से शान्ति के अनुरोध हेतु एक सभा आयोजित की जिसमें उनके साथ मंच पर माओवादियों के प्रति अपने दिलों में सहानुभूति और नरमी रखने वाले कुछ गैर सरकारी संगठन और कुछ लोग मंच पर मौजूद थे।

अपने भाषण में ममता बनर्जी ने माओवादियों से हिंसा का रास्ता छोड़ बातचीत की राह पकड़ने का आग्रह किया। बात यहां तक तो सही चलती रही लेकिन ममता ने अपने भाषण में कुछ ऐसा कह गई जिससे विपक्ष समेत देश का एक बड़ा बुद्वजीवी वर्ग की भौंऐ तन गई। ममता ने अपने भाषण में माओवादी नेता चेरूकुरी राजकुमार उर्फ आजाद की हत्या की गई।

लगता है ममता जी यह भूल गई हैं कि नक्सलियों द्वारा इतने लोग मारे गये हैं जितने कि आतंकवादी हमलों में नहीं मारे गये। मैं नहीं कहता कि माओवादियों से सहानुभूति रखना गलत है। आखिर उनके साथ अन्याय हुआ जिसके प्रतिशोध में उन्होंने हथियार उठा लिये मगर हर मुद्दे को राजनीतिक रूप देना कहां तक सही है। मैं नहीं कहता कि ममता बनर्जी की अनुरोध गलत है लकिन यह कहना कि आजाद की हत्या की गई गलत है क्योंकि इससे उन्हें और बल मिलेगा जो कि सही नहीं है।