Thursday, June 23, 2011


बचाओ-बचाओ--- सरकार को या जनता को?
आपने वो कहावत तो सुनी ही होगी, 'अपने पैरों पर ही कुल्हाड़ी मारना'। वर्तमान परिपेक्ष में यूपीए सरकार के सामने कुछ ऐसी ही स्थिति है। यहां पैर यूपीए सरकार और कुल्हाड़ी है अन्ना हजारे का जनलोकपाल बिल। मैंने यहां पर कुल्हाड़ी अन्ना के लोकपाल बिल को इस लिए कहा क्योंकि केंद्र सरकार का जनलोकपाल बिल सं•ावत: उनके पैरों को बचाने के लिए तैयार किया गया है। इस लिए यहां पर यह कहना अतिशियोक्ति नहीं होगी कि केंद्र सरकार का जनलोकपाल बिल •ा्रष्ट और दागी मंत्रियों पर अंकुश लगाने में नाकाम होगा।
उल्लेखनिय है कि इस वर्ष अप्रैल में अन्ना हजारे ने केंद्र सरकार के खिलाफ •ा्रष्टाचार विरोधी मोर्चा खोल दिया था। इंडिया अगेंट्स करपशन के बैनर तले दिल्ली के जंतर मंतर पर परचम बुलंद किया गया। 5 अप्रैल से 9 अप्रैल तक चले अन्ना के अमरण अनशन में पूरा देश उनके साथ खड़ा होगया था। होता •ाी क्यों न, स•ाी •ा्रष्टाचार से त्रस्त जो हैं। हजारे को हासिल •ाारी जन समर्थन के सामने सरकार टिक नहीं पाई। इस बात की औपचारिक पुष्टी केंद्र सरकार के शपथ पत्र ने जंतर मंतर पर कर दी। इसके बाद हजारे ने अपना अनशन •ाी तोड़ दिया।
पांच दिन तक चले इस घठटनाक्रम के बाद हजारे का अनशन तोड़ना देश के आवाम के लिए किसी विश्व युद्ध जीतने से कम न था। इसका बयान जंतर मंतर पर मौजूद लोगों के हूजूम में उत्साह देख कर लगाना मुशकिल नहीं था। उन्हें यह जीत अपनी जीत की तरह दिखाई दी। इसके साथ ही उनमें यह उम्मीद •ाी जागी कि अब •ा्रष्टाचार और •ा्रष्टाचारियों पर नकेल लग पाएगी। लेकिन हजारे की उम्मीद लोगों के विपरीत थी। उन्हें पता था कि सरकार इस बिल को आसानी से पास नहीं होने देगी, क्योंकि इस बिल के पास होने से सबसे पहले उसकी ही गर्दन फंसेगी। ऐसा इस लिए •ाी था क्योंकि हजारे सरकार के रग-रग से वाकिफ थे। इसी वजह से उन्होंने 9 अप्रैल को अनशन की समाप्ति के बाद लोगों से कहा कि इसे जंग का अंजाम नहीं बल्कि आगाज समझें। अ•ाी हर स्तर पर लड़ाई लड़Þनी बाकी है।
सरकार और जनता के नुमाइंदों के बीच बिल के मसौदों पर बात-चीत शुरू हुई। अपनी फंसती गर्दन बचाने के चक्कर में सरकार धीरे-धीरे अपना रंग दिखाने लगी। नतीजतन दोनों नुमाइंदों के बीच की खाई दिन-प्रति-दिन गहराती चली गई। आज हलात यह हैं कि हजारे ने 16 अगस्त से दोबारा अनशन पर बैठने की बात कही है। वजह है जनता के प्रतिनिधियों की 9 और सबसे महत्वपूर्ण मांगे नहीं मानना। यह मांगें निम्न हैं:-
जनप्रतिनिधियों की मांग है कि प्रधानमंत्री को जनलोकपाल की जांच के परिधि में शामिल किया जाए जबकि सरकार इसके खिलाफ में है। सरकार का कहना है कि प्रधानमंत्री को इससे बाहर रखा जाना चाहिए, और अगर लाना और करवाही करनी है तो कार्यकाल समाप्त होने के बाद।
सर्वोच्च न्यायधीश को •ाी जांच के परिधि में होना चाहिए जबकि सरकार इसके विरोध में है।
लोकस•ाा में मंत्रियों का आचरण जनलाकपाल के कार्य के दायरे में होना चाहिए, लेकिन सरकार का कहना है कि ऐसा सं•ाव नहीं है। मंत्रियों को लोकस•ाा का ला•ा लेने का अधिकार है।
सीबीआई और सीवीसी को लोकपाल में सम्मलित होना चाहिए। सरकार यह कह कर इस सुझाव का विरोध कर रही कि दोनों ही संस्थाएं किसी के अधीन काम नहीं कर सकती हैं।
लोकपाल के चुनाव के पैनल में सीवीसी और सीईसी में शामिल हो ना चाहिए। सरकार का कहना है कि है लोकपाल का चुनाव उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मंत्रियों के द्वारा होना चाहिए।
स•ाी नौकरशाहों को जनलोकपाल की जांच परिधि में शामिल किया जाना चाहिए जबकि सरकार सिर्फ उच्च नौकरशाहों को जांच के दायरे में लाना चाहती है।
लोकपाल को प्रासिक्य्शन और फोन टेन करवाने का अधिकार होना चाहिए जबकि सरकार दोनों ही सुझावों के विरोध में खड़ी है। सरकार का कहना है कि जनलोकपाल को प्रासिक्य्शन का अधिकार नहीं दिया जा सकता है और जहां तक फोन टेप करवाने का सवाल है तो लाकपाल को इसके लिए गृह सचिव से अनुमति लेनी होगी।
जांच में दोषी पाए जाने की दशा में आजीवन कारावास का प्रावधान होना चाहिए जबकि सरकार सजा को महज दस साल रखना चाहती है।
लोकपाल को हटाने के लिए कोई •ाी नागरिक सर्वोच्च न्यायलय में अर्जी दाखिल दे सकता है वहीं सरकार चाहती है कि यह अधिकार सिर्फ सरकार के पास रहे।
इस स•ाी मामलों में सरकार की लोगों के प्रति ना फरमानी सरकार की •ा्रष्टाचार के प्रति सरकार का जागरुक रवैए को दिखाता है। बहरहाल •ा्रष्टाचार को लेकर चौतरफा वार झेल रही यूपीए सरकार एक और पुरानी कहावत की सार्थक्ता सिद्ध करती दिखाई देती है। इस बार 'खिसयानी बिल्ली खं•ाा नोचे'। लेकिन इस बार बिल्ली ने सिर्फ खं•ाा ही नहीं नोचा बल्कि पंजा •ाी मारा जिसमें कई लोग घायल हो गए। मैं बात कर रहा हूं बाबा रामदेव की जो काले धन को •ाारत लाने और उसे राष्ट्र सम्पत्ति घोषित करने की मांग को लेकर दिल्ली के रामलीला मैदान में 4 जून से शांतिपूर्ण तरीके से अनशन पर बैठे थे। सरकार ने अपनी दबंगई दिखाते हुए निहत्थे लोगों को पुलिस के हाथों पिटवाया।
इन स•ाी बातों से यही लगता है कि सरकार, पाकिस्तान की तरह दोहरी बात कर रही है। जैसे पाकिस्तान •ाारत और दुनिया से आतंकवाद के खिलाफ कारवाई की बात   तो कहता है, लेकिन कारवाई एक नहीं करता उल्टे उसे बढ़ावा देता है। ठीक उसी तरह केंद्र सरकार •ाी •ा्रष्टाचार की खिलाफत करती है लेकिन अपनी नितियों से उसे बढ़ावा •ाी देती है। यहां सवाल इस बात का है कि बचाओ- बचाओ की पुकार सरकार को देश वासियों की सुनाई देती है या •ा्रष्टाचार में अपने दामन को मलीन करने वाले नेताओं की। •ाारत का आने वाला •ाविष्य वही तय करेगा।

Saturday, February 19, 2011


गांधी जी की पूछ आज ज्यादा है

मोहन दास करमचंद गांधी जिन्हें हम गांधी और बापू के नाम से भी जानते हैं, की पूछ शायद आजादी के लिए उतनी नहीं रही होगी जितनी आज आजादी के बाद है। आप सोच रहे होंगे कि मैं यह क्या कह रहा हूं। तो मैं आपको बता दंू कि मैं आज के गांधी जी यानिकि रुपए की बात कर रहा हूं। आज गांधी और उनकी कही बातेें तो किसी को याद तो नहीं हैं लेकिन रुपए के लिए सब पागल हैं। चाहे वह जैसे भी आए, आना चाहिए। क्योंकि रुपए तो रुपए होते हैं। इस जन्मजात बीमारी से आम जनता और यकीन्न हमा राजनेता भी ग्रसित हैं। तभी तो आए दिन कोई न कोई  ोटाला सामने आ रहा है। शुरुआत राष्ट्रमंडल खेल  ोटले से हुई। इसके बाद तो जैसे  ोटाले उजागर होने का दौर ही शुुरु हो गया हो। २जी स्पेक्ट्रम, आर्दश सोसायटी और न जाने कितने ही इस कतार में अपना नाम गिने जाने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। लेकिन मैं उनका नाम लेकर उनकी शाने चार चांद नहीं लगाना चाहता।
बात यहां रुपए की प्रभुत्व की और भी पुख्ता हो जाती है कि प्रधानमंत्री तक खुद को इसके आगे बेबस बताते हैं। इलेक्ट्रानिक मीडिया के संपादकों के साथ हुई बैठक से इस बात को और बल मिलता है। बैठक में प्रधानमंत्री ने साफ तौर पर कहा कि वे बेबस हैं। गठबंधन सरकार की कुछ मजबूरियां होती हैं। इनके अंदर रह कर ही सरका को काम करना होता है। 
चलो यह सब तो राजनीतिक बातें थी। सरकार के मन में क्या है यह जग जाहिर है। सरकार किसी भी तरह अपनी कुर्सी बचाना चाहती है। इसमें प्रधानमंत्री भी पीछे नहीं हैं। वह भी अपनी कुर्सी और उसके जाने के बाद का प्रबंध कर लेना चाहते हैं। इसके लिए उनके पास मात्र तीन वर्षों का समय शेष है। इसी लिए वह ऐसे बयान दे रहे हैं। लेकिन सोचने वाली बात है कि आखिर क्या वजह है कि इस सरकार के दौरान इतने सा  ोटाले हुए और वह भी इतनी आसानी से। इस सवाल के जावाब में अगर केंद्र सरकार यह कहे कि उसके पास इस सवाल का जवाब नहीं है तो मैं यह ही कूंगा कि यह बात कुछ हजम नहीं हुई। ऐसा हो ही नहीं सकता कि नेता सरकार के नाक के नीचे से उसकी मंूछ काट कर ले जाए और सरकार को पता ही न चले। शक यह भी होता है कि कहीं इन सब में सरकार भी बराब की भागेदार है। यह सवाल मे मन में ही नहीं बल्कि पू भारतवासियों के मन में उठ रहा होगा। इस सवाल का जवाब किसी बे़ से पूछने पर तो आसानी से मिल ही जाएगा। लेकिन आज कि माहौल में इस सवाल का जवाब एक बच्चा भी दे देगा क्योंकि उसे यह पता है कि जनता के साथ होने का दम भरने वालों का असली चेहरा क्या है। सरकार के लिए इज्जत कितनी है एक गरीब से बेहतर कोई नहीं बता पाएगा क्योंकि इस र्दद हो वह ही समझ सकता है जो रातों को पेट अपनी पीठ से जो कर सोता है। दलितों के  रों में जा कर राजनीति करने से यह बात छिप नहीं जाती। 
आज गांधी की उपयोगिता इतनी ज्यादा है कि कोई बिगत़ा काम इसके प्रयोग से आसानी से बन सकता है। इसका जीवंत उदाहरण नीरा राडिया और बे़ उद्योग  रानों के लिए हुई लॉबिंग से लगा सकते हैं। यह सिर्फ बे़ स्तर पर ही नहीं बल्कि छोटे स्तर पर भी शुरु हो जाता है। चाहे वह एक सरकारह दफतर का प्यून की क्यों न हो। चाय पानी की मांग तो जैसे उसका जन्मसिद्ध अधिकार है। इन सब बातों कोच कर गुस्सा आता है लेकिन यह सोच कर खुद ही चुप हो जाता ूं कि यहां पर कुछ  तक कुछ नहीं हो सकता जब तक हम नकली गांधी जगह असली गांधी को नहीं देेते।


Wednesday, February 16, 2011


प्रधानमंत्री के बयान पर अफसोस होता है!

देश में बढ़ते •ा्रष्टाचार को लेकर केंद्र सरकार हर तरफ से घिरती दिखाई दे रही है। एक तरफ विपक्ष और वामदल तो दूसरी तरफ देश की करोड़ से •ाी अधिक की जनता। जिसकी उम्मीदों पर आघात ख्ुाद केंद्र सरकार ने ही किया है। आसमान में उड़ती सरकार जमीन पर तो आनी ही थी। हुआ •ाी यही। अपने सरकार के बचाव में प्रधानमंत्री खुद सामने आए। या यूं कहें कि प्रधानमंत्री को तुरुप के इक्के की तरह •ोजा गया।
प्रधानमंत्री आए और मीडिया के सामने अपने हार और लाचारी की दास्तान परोस दी। प्रधानमंत्री ने कहा कि गठबंधन सरकार की कुछ मजबूरियां होती हैं। केंद्र सरकार •ाी कुछ ऐसी ही स्थिति से गुजर रही है। पूर्व टेलिकॉम मंत्री ए राजा कांग्रेस की नहीं डीएमके के खास थे। डीएमके के सुझाव पर ही राजा को टेलिकॉम मंत्री बनाया गया था। इन विरोधा•ाासी बयानों के बाद लागों की प्रतिक्रियाएं आनी तो स्व•ााविक थीं। ऐसा हुआ •ाी। कुछ ने प्रधानमंत्री को धृतराष्ट्र बोल डाला तो कुछ ने उनसे इस्तीफे की मांग कर डाली। आखिर हो •ाी क्यों न, उन्होंने •ाी कई बार बच्चों की तरह बायान दिये जिससे लोगों की •ाावनाए तो आहत हुई ही, विरोधियों को राजनीति करने का एक और बना बनाया मुद्दा मिल गया। जिस पर राजनीति •ाी उम्मीद के मुताबिक देखने को मिली। 
इन सब के बाद •ाी प्रधानमंत्री के झुकी हुई रीढ़ वाले नेताओं सरीके बयान ने कुछ सवाल खडेÞ कर दिये। इनका जवाब होने पर •ाी शायद प्रधानमंत्री देना नहीं चाहेंगे। सवाल जैसे क्या गठबंधन सरकार की मजबूरी के नाम पर •ा्रष्टाचार को जायज ठहराया जा सकता है? क्या प्रधानमंत्री की बात का यह मतलब निकाला जाना चाहिए कि उन्होंने एक तरह से यह साफ कर दिया है कि इस सरकार के रहते •ा्रष्टाचार को रोकना सं•ाव नहीं है? क्या प्रधानमंत्री ने घोटालों का दोष जनता पर ही मढ़ दिया है, क्योंकि  जनता ने कांग्रेस को पूर्ण बहुमत से सत्ता में नहीं लौटाया? और सबसे अंत में सबसे जरूरी सवाल कि क्या प्रधानमंत्री अपनी जिम्मेदारियों से बच सकते हैं?
अगर इन सवालों का जवाब देश की आम जनता जो रोज दो वक्त की रोटी के लिए •ाागती दौड़ती है तो जवाब सबको पता है क्या मिलेगा। हमारी सरकार को यह सोचने की आवश्यक्ता है कि क्या सरकार को सोचने की जब हर जगह सरकार की मट्टी पलीत हो रही है तब उसे क्या करना चाहिए? वह काम जो वहा अब तक करती आई है या वह काम जिसके लिए देश की जनता ने उसे चुना था?