Wednesday, July 14, 2010



कश्मीर और भारत

कश्मीर, भारत कर ताज, भारत का स्वर्ग और न जाने किन किन नामों से हम संबोधित करते रहे हैं। यहां की डल ऋझील और गृह नौकाएं, बर्फ के पहाड़ और चारो तरफ हरी भरी छटा हमेशा से अपनी ओर आकर्षित करती रही हैं। इन मनमोहक नजारों को मैंने और आपने फिल्मों में भी खूब देखा होगा और जिन लोगों को यहां आने का मौका मिला उनके लिये ये सोने पे सुहागा जैसे बात रही होगी। मगर जब से आतंकवाद ने अपने कदम वहां रखे तब से कश्मीर की फिजाओं में मानो ज़हर घुल गया हो।  इस पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद ने वहां ऐसा माहौल पैदा कर दिया कि लोग वहां जाने से कतराने लगे। हालात को नियंत्रित करने के उद्येश्य से वहां सेना भी मौके बेमौके आती रही है और आतंकवाद रूपी नाग के न केवल दांत तोड़ती बल्कि फन भी कुचलती रही है।

बीच में कवायद रंग लाई और कश्मीर के हालात सुधरने लगे थे और घाटी की पुकार फिर से लोगों के कानों में पड़ने लगी थी। इस बीच मैं भी अपने माता पिता के संग वहां हो आया। माहौल तो शांत था मगर लोंगों के चेहरे पर मौत के डर, खून और चीख पुकार की छाई खामोशी बखूबी देखी जा सकती थी। प्रमुख स्थलों और बाज़ारों में सुरक्षा बलों की टुकड़ीयां तैनात दिखी जो जाने अनजाने हमें हमेशा सजग रहने की हिदायत देती और वहां की घ्सटनाओं को याद दिलाती थी। मगर घाटी का शांत माहौल ज्यादा दिनों तक शांत नहीं रह पाया और एक बार फिर आतंकियों ने बंदूकों के साये तले आतंक का नंगा नाच फिर से शुरू कर दिया। सीआरपीएफ और पुलिस बल के जवान तो वहां कायम थे ही सेना के आने और जाने का सिलसिला बादस्तूर जारी था।

आतंकवाद से लड़ते लड़ते सुरक्षा बलों की आंखों ने इतना खून देख लिया कि शायद कि वे अपने और आतंकवादियों मंे ज़्यादा फर्क न कर पाये और कई अमानवीय घटनाओं को अंजाम दे बैठे। आतंवाद के नाम पर वहां के बाशिंदों का फर्जी एनकाउंटर, अवैध हिरासत, बलातकार जैसी घटनाओं से अपने साफ छवी बेदाग न रख पाये और गंदी कर बैठे। सरकार का सारा ध्यान पाक प्रायोजित आतंकवाद पर था और है शायद इसी वजह से उसका ध्यान इस घटनाओं की ओर नहीं हो पाया। जब रक्षक भक्षक बन रहा था तब सरकारें आतंवाद से ग्रसित कश्मीर से चिंतित थी और उसे मुक्ति दिलाने के प्रयासों में लगी थी जो आज तक जारी है। इन्हीं सारी वजहों से आम जनता की भावनाये आहत होने लगी और वे खुद को सभी के बीच अकेला और असहज महसूस करने लगी। इस बीच खबरों का बाजार भी गरम रहा कि घाटी के नौजवान पाकिस्तान जा कर आतंकवादियों से हाथ मिला बैठे हैं और प्रशिक्षण ले कर भारत के ही खिलाफ हथियार उठा रहे हैं। शायद लोगों की ये प्रतिक्रिया उन्हीं आहत भावनाओं के फल स्वरूप रही होगी। मगर इसके से ही आत्मसमर्पण और वतन वापसी की खबरें भी आती रही। अभी हाल ही में ऐ वाक्या जो मुझे याद है वो ये कि एक शक्स जो लश्कर-ए-तैयबा में शामिल हो गया था, वहां के माहौल से परेशान हो कर वतन वापसी की राह में सीमा पार करते वक्त सुरक्षा बलों द्वारा पकड़ लिया गया। कई समाचार पत्रों ने उसका साक्षतकार भी छापा था जिसमें ये भी बताया गया कि उसके जैसे ही और भारतीय कश्मीरी नागरिक जो आतंकवादीयों के शिविरों में प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे हैं वे भी वतन वापसी की फिराक्त में हैं।

ऐसा नहीं है कि कश्मीर घाटी में हालात अब सामान्य हैं। अलबत्ता वहां जन आक्रोष धीरे धीरे और बढ़ रहा है जिसने अपना रूप भी लेना प्रारंभ कर दिया है। इसका फायदा वहां के कुछ अलगाववादी संगठन और राजनीतिक पार्टीयां उठा रही हैं जिन्होंने वहां के नौजवानों को फुस्लाकर अपने गुटों में शामिल कर लिया है और अपने फायदे के लिये छोटे छोटे मुद्दे बना कर उन्हें सड़को पर भारी हंगामा करने उतार देती हैं। अभी कुछ ही दिनों पहले ऐसे हालात सामने आये थे जहां पुलिस बल और ऐसे संगठनों से जुडे़ युवाओं के बीच झड़प देखी गई। यह भी बता दें कि ये राजनीतिक  पार्टीयां और अलगाववादी संगठन अपने अपने संगठनों से जुड़े यूवाओं को वेतन भी मुहैया करवाते हैं जिससे ये वहां युवाओं के बीच रोज़गार का साधन के रूप में भी अपनी जड़ बना रहा है। इन्हीं झड़पों के क्रम में कुछ ही महीनों के अंतराल के बाद एक और वाक्या सामने आया जो इतना बढ़ गया कि वहां कफर््यू लगानी पड़ी। इस दौरान भी झड़पों का सिलसिला कायम रहा जिसेमें कुछ लोगों की सीआरपीएफ की गोलियों से मौत हो गई। पिछली बार की तरह इस बार भी अलगाववादी संगठनों और हुर्रियत कानफ्रंस ने मौके का फायदा उठाने की कोशिश की। यहां यह भी बताते चलें कि हुर्रियत कानफ्रंस की आतंकी संगठनों से रिशते जग जाहिर हैं। उनकी इस कवायद का हिस्सा आतंकवाद को भीड़ में शामिल करना था जिससे मरने वालों की संख्या में और इज़ाफा हो सके। इस पहल से आतंकवाद को एक नया चेहरा देने की कोशिश थी जिससे मरने वालों की संख्या में भारी इज़ाफा किया जा सके और भारत की छवी पर दाग लगाया जा सके। इसका सीधा फायदा पाकिस्तान को मिलता जिससे वह एक बार फिर आरोप लगाने और आतंकवाद और कश्मीर जैसे अहम मुद्दों से भटका सके।

हलांकि कफर््यू हटा ली गई है लेकिन अब भी इससे गेरेज़ नहीं किया जा सकता कि घाटी के हालात अब भी काफी बिगड़े हुए हैं। लेकिन यहां पर सवाल इस बात का नहीं है कि हालात कितने दिनों तक सामान्य बने रहते हैं बल्कि ये है कि लोगों के दिलों में पल रहे तूफान को कैसे शांत किया जाये और उनके साथ हुए अन्याय के लिये उन्हें क्या न्याय मिले और कैसे सुनिश्चित किया जाये कि आगामी भविष्य में उनके साथ ऐसी कोई घटना नहींे होगी। ये सवाल सिर्फ उमर सरकार की नहीं है बल्कि इसके लिये कारगर कदल की पहल केन्द्र को करनी होगी। केन्द्र को यह सुनिश्चित करना होगा कि उसके द्वारा उठाये कदमों का पालन भी हो। यहां पर ज़रूरी होगा कि कोई भी राजनीतिक पार्टी इन्हें मुद्दा न बाये जिस पर वे अपनी रोटीयां सेकें। इन सब प्रयासों में मीडिया की भी भूमिका होनी चाहिये जिससे कि वह अपने कलम और कैमरों की सहायता से सरकार और अलगाववादी संगठनों पर अपनी पैनी नज़र बनाये रखे।
आनर किलिंग...........सोचिये!

बरसों से हमारे देश ने प्यार और प्यार करने वालों को अपने दिलों में खास जगह दी है। बरसों से कृष्ण और राधा के रूप में पूजते आ रहे हैं और हीर रांझा, सोनी महीवाल जैसे प्रेमियों को अपने जहन में एक खास जगह देकर जिन्दा रखा है। हमारे फिल्म जगत ने भी प्यार और प्यार करने वालों पर न जाने कितनी फिल्में बनाई हैं और आगे भी न जाने कितनी बनाता रहेगा।

मगर जहां हमारा समाज फिल्मों में प्यार को खूब सराहता है वहीं उसके जीवन में शुमार होने पर बौखला उठता है। जब उनके बच्चे प्यार की राह में अपने कदम आगे बढ़ाने लगते हैं तो सारा परिवार या यूं कहंे कि सारा समाज उनके खिलाफ हो जाता है। कभी कभी तो ये खिलाफत इतनी आगे बढ़ जाती है कि वे इन्सानियत की सारी हदें पार कर अपने लख़ते जिगर के टुकड़ों को मौत के घाट उतारने से भी गुरेज नहीं करते।

लेकिन ये कभी कभी होने वाल घटनायें आज कल आम हो चली हैं। आज समाचार पत्रों में माता पिता द्वारा अपनी झूठी इज्ज़त के नाम पर बरपाई गई कहर सुर्खियां बटोरती नजर आती हैं। पहले जहां शुरूआत पंजाब से हुई वहीं दिल्ली और आस पास के इलाके इसकी आंच से खुद को बचा नहीं सके और उसमें अपने जिगर के टुकड़ों को जला ड़ाला। आज झूठी शानोशौकत के नाम पर प्यार के दुश्मन पूरे भारत में अपना कहर बरपा रहे हैं। चाहे वह खाप पंचायत हो, एक गोत्र में विवाह का मामला हो या फिर प्यार की हत्या यानी आनर किलिंग का, अपने ही अपनों का खून बहाते नजर आ रहे हैं। देखा जाये तो आज पूरे भारत में प्यार के दुश्मन कहीं न कहीं दो दिलों का बेरहमी से गला घोंट रहे हैं। सरकार भी इस मामले पर परेशान है क्योंकि न तो इस मसले से संबंधित कोई कानून है और न ही कोई ठोस उपाय जिसे अपनाया जा सके। ऊपर से कानून व्यवस्था की जो धज्जियां उड़ रही हैं वा अलग।

लोग या समाज चाहे इसके लिये कोई भी दलील क्यों न दे लेकिन सच तो यही है कि माता पिता उन्हें ही मौत के घाट उतार रहे हैं जिनके लिये उन्होंने ही कई बार उनके सपनों के लिये अपने सपनों की कुरबानी दी होगी। माता पिता का ये अमानवीय रवैया हमारे सभ्य समाज के उस चेहरे को उजागर करता है जिसे अभी तक शर्म, लिहाज, आदि के नाम पर अभी तक छिपाया जा रहा था। कहने को भारत 2020 तक ख़ुद को विकसित देशों के नामों में शुमार देखना चाहता है लेकिन इस जो हमारे समाज की कूरीतियां हैं उनसे कैसे पार पाया जाये, बड़ा सवाल है। ज़रा सोचिये कि क्या ये सही है कि अपने झूठी शान और शौकत के नाम पर अपने ही नौनिहालों को मौत के घाट उतार दिया जाये। ये शानो शौकित किस काम की जो अपने बच्चों की लाशों पर खड़ी की जाये। अगर यह सही है तो प्यार के नाम पर अब तक की सारी मान्यतायें, परम्परायें सिर्फ एक ढ़कोसला हैं। और अगर ये सब एक ढ़कोसला है तो फिर इसे क्यों मानते आ रहे हैं, छोड़ क्यों नहीं देते? सवाल अब भी अपना मुहं खोले हमारे सामने खड़ा है और हमसे ये पूछ रहा है ज़रा सोचिये............!

Tuesday, July 13, 2010

अंग्रजी के सामने सिसक्ती हिन्दी

भारत जिसे राजा भरत के नाम पर या हिन्दुस्तान या जिसे अंग्रेजों ने जिसे इंड़िया बुलाया एक संप्रभू राष्ट्र है। यह राष्ट्र अपने अंदर कई भाषाऐं समाहित किये हुये है। इन्हीं में से एक हिन्दी है जिसे अनुच्छेद 8 के अंतर्गत राज्य भाषा का दर्जा हासिल है। लेकिन इस देश की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि इसे अपनी ही भाषा की सुद लेने की फुरसत नहीं है। आज हिन्दी अपने ही देश में अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है।

आज कोई भी भारत का शिक्षित नागरिक हो या सरकार, सभी को आंग्ल भाषा या यंू कहें की अंग्रेजी ने अपने गिरफ्त में कुछ ऐसे ले रखा है जिससे वे हिन्दी पर अपना ध्यान केन्द्रित ही नहीं कर पा रहे हैं। आज सरकारी दफतरों से लेकर नीजी उद्योगों के दफ्तरों तक, यहां तक की हमारे न्यायलय में भी हिन्दी के आगे हिन्दी हावी दिखाई देती है। आज अंग्रजी का आलम ये हो गया है कि चाहे वा कोई स्कूल जाता बच्चा हो या फिर एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति सभी अंग्रजी के पीछे बेतहाशा भाग रहे हैं। अगर सरकारी विद्यालयों को छोड़ कर नीजी विद्यालयों की बात करें तो वहां हिन्दी के अलावा बाकी सभी विष्य अंग्रेजी में होते हैं। स्वंय माता पिता भी जानते हैं कि आज हिन्दी का आलम क्या है, इसी वजह से वे अपने बच्चों को अंग्रेजी की ओर दौड़ा देते हैं जिससे उन्हें बड़े होने पर अनपे जीवन व्यापन के लिये नौकरी मिल जाये। आज भारत का पढ़ा लिखा वर्ग अंगेजी को उच्च वर्ग से जोड़ कर देखता है और कोशिश करता है कि उनकी सुबह अंग्रेजी से शुरू हो और रात अंग्रेजी पर ख़त्म। सपनों से ले कर बातों तक और खयालों से ले कर खानों और सोने तक सब कुछ अंग्रेजी में ही करना चाहते हैं। बड़े आसानी से उन्हंे इस जुगत में देखा भी जा सकता है।

मैं यहां पर किसी भाषा पर सवाल नहीं उठा रहा हुं बल्कि यहां पर हिन्दी की वर्तमान स्थिति को रखने की कोशिश कर रहा हंू। मैं अपने इस लेख से अपनी मात्र भाषा हिन्दी के प्रति लोगो को पुनः जाग्रित करना चाहता हुं ताकी वह अपने देश को भारत बुलाएं न कि अंगेजों द्वारा दिया इंड़िया। मैं यह भा जानता हंू कि शायद मेरे बड़े मुझसे एक राय न हों पर मैं एक बात जाना हंू कि शुरूआत कहीं से तो होनी है और ये शुरूआत किसी ने तो करनी थी। भारत के लिये इससे बड़ी विडम्बना और क्या होगी कि उसे हिन्दी की रक्षा के लिये हिन्दी दिवस मनाना पड़ता है। हिन्दी की इस दयनीय अवस्था से हम सभी भारतीयों को जरूर शर्मसार महसूस करना चाहिये।

मैंने एक बार एक अंग्रेजी के प्रख्यात दैनिक समाचार पत्र में हिन्दी की इस दयनीय अवस्था के बारे में पढ़ा और सोचने लगा कि क्या ज़माना आगया है और मन ही मन हंसने लगा कि जिस भाषा ने हिन्दी का ये हाल किया है वही अब हिन्दी के वर्तमान हालात के बारे में बता रही है। यहां सोचने की ज़रूरत है कि अगर आने वाले दिनों में हिन्दी का यही हाल रहा तो कहीं हमें अपने बच्चों से ये न कहना पड़े कि "Children learn this language. It is Hindi. It is our National Language."

Monday, July 5, 2010

नामकरण प्रक्रिया

राजनीतिक हल्कों में जगहों, स्मारकों आदि के नाम बदलने का प्रचलन काफी पुराना है। इसी प्रचलन में कुछ ही दिनों पहले एक और जगह का नामकरण कर दिया गया। इस बार यह प्रक्रिया कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी के संसदिय क्षेत्र अमेठी के साथ दोहराई गई जिसे उ0प्र0 की मुख्य मंत्री और बसपा सुप्रीमो मायावती ने बदल कर छत्रपति शाहूजी महाराज नगर कर दिया है। राजनीति की शतरंज में मायावती अपनी इस चाल से जहां फूली नहीं समा रही होंगी वहीं सोनिया गांधी जरूर थोडी सोच विचार में पड़ी होंगी। सोच इस बात कि अब तक जहां वे अपनी सार्वजनिक सभाओं में ‘‘मेरे प्यारे अमेठी के निवासियों’’ कहा होगा वहीं अब उन्हें नाम लेने में थोड़ी असहजता महसूस होगी। अब उन्हें अपनी सार्वजनिक सभा में वहां के निवासियों को ‘‘मेरे प्यारे छत्रपति शाहूजी महाराज नगर’’ के निवासियों कहने के लिये ज़ुबान को अच्छी खासी कसरत करानी पड़ेगी।

लेकिन इस प्रचलन के इतिहास पर अगर नज़र ड़ाले तो कभी भी नामकरण का फायदा वहां की जनता को मिलाता नहीं दिखता। न तो इन सब चोचलेबाजी से उनकी आय बढ़ती है और न ही निगम की कार्यप्रणाली और कानून व्यवस्था में सुधार आता है। यानी कि जगह का नाम तो नया हो गया लेकिन बाकी सारी चीज़े जस की तस ही रहीं। अर्थात कुल मिला कर यही कहा जा सकता है कि किसी पार्टी विशेष के नेता या महापुरूष के नाम को अमर बनाने की कवायद में जनता का भला नहीं होता। जनता वहीं अपनी दो जून की रोटी की जुगत में पसीना बहाती रहती है और हमारे राजनेता अपनी कारगुज़ारी पर वातानुकूलित अपने दफतर में बैठ अपनी पीठ थपथपाते नहीं थकते।

स्थानों, स्मारकों आदि के नामकरण का इतिहास यह भी बताता है कि इसकी शुरूआत हमारी वर्तमान केंद्र सरकार और देश की सबसे बड़ी पार्टीयों में से एक कांग्रसे ने शिलान्यास रख कर की थी। तब से अब तक जिस राजनीतिक पार्टी ने चाहा उसने इसी भूमी पर अपनी अपनी ईमारत खडी कर नामकरण की पद्यति को आगे बढ़ाया और अब भी अपने अथक प्रयास में अग्रसर हैं। अगर ज़्यादा दूर की बात न कर के आपने शहर और देश की राजधानी दिल्ली की ही बात करें तो हम पायेंगे कि यह भी इससे अछूती नहीं है। दिल्ली का दिल कहे जाने वाले कनाट प्लेस का नाम बदल कर राजीव चैक और अंतरराष्ट्रिय हवाई अड्डे का नाम बदल कर इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रिय हवाई अड्डा कर दिया गया। इसका फायदा लोगों को तो कुछ नहीं मिला लेकिन नामों को लेकर शंशय कि स्थिति ज़रूर पैदा कर डाली है। लेकिन जैसे पुरानी चीज़ें अपना छाप छोड़ देती हैं और भुलाये नहीं भूलती वैसे ही कनाट प्लेस के साथ भी वैसा ही कुछ है। लोगों के ज़ुबान पर कनाट प्लेस कुछ ऐसा चढा है कि राजीव चैक का नाम किसी को याद भी नहीं है और अगर मैट्रो नहीं होती तो शायद कभी याद भी नहीं आता लेकिन सरकारी दफ्तरों में इसका नाम राजीव चैक दर्ज है।

यहां गौर करने वाली बात यह है कि इस तरह की राजनीतिक प्रयासों से पैदा होती व्योहारिक दिक्कतों सरकारी दफ्तरों में काम करने वालों के लिये भी परेशानी का सबब बनती रही है। वहीं कुछ नाम अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं जिन पर इस नामकरण का कू प्रभाव नहीं पड़ा है जैसे चैन्नै का हाई कोर्ट आज भी मद्रास हाई कोट के नाम से जाना जाता है, बम्बई या बाम्बे का मुंबई होने के बावजूद भी बाम्ब हाई कोट और बाम्बे स्टाक एक्सचेंज अपने पुराने नाम से ही जाने जाते हैं। यह हमारे राजनेताओं और सरकारों को सोचना चाहिये कि सिर्फ अपने राजनीतिक लालसा के लिये स्थानों, स्मारकों आदि बदलने से देश का कल्याण कभी नहीं होगा। देश का कल्याण होगा उन जगहों की सूरत बदलने से, लोगों को राज़गार मुहैया कराने से, उनके जीवन व्यापन के स्तर को उठाने से, शिक्षा आदि से। वरना कहीं इसी तरह के प्रयासों से प्रभावित होकर राज्य तेलंगाना की भांती अलग राष्ट्र की मांग करने लगेंगे और देश का विघटन हो जायेगा।

Saturday, July 3, 2010


नक्सलियों के आगे बौनी सरकार

छत्तीसगढ़ सरकार नक्सलियों के आगे घुटने टेकते दिखाई दे रही है। यह तथ्य और उजागर तब और हुआ जब गत मंगलवार को नारायणपुर जिले में नक्सलियों ने सीआरपीएफ के 26 जवानों को मौत के घाट उतार दिया था। बताया जाता है कि तब हुई जब जवान दौराई रोड़ से पैदल ही कैंप को लौट रहे थे।

लगातार हो रहे नक्सलियों के हमलों से एक बात तो उजागर ज़रूर हुई है कि चाहे राज्य और केंद्र सरकारें नक्सलियों की चुनौती को अपने अपने बयानों में कितना भी गंम्भीर मामला बतायें और उनसे निपटने के लिये चाहे कितने भी उपायों पर काम करने की बात कहें मगर ज़मीनी हक़ीकत तो यही है कि नक्सल विरोधी अभियान कि गति वही है जो कि किसी सरकारी दफतर में सरकारी काम की होती है, बेहद सुस्त, ढीली और लचर। देखा जाये तो इसमें सरकारों की भी कोई गलती नहीं है क्योंकि इन नक्सली हमलों में किसी सरकारी मंत्री का कोई सगेवाला या कोई रिश्तेदार तो नहीं हताहत हुआ है ना। अगर सरकार के किसी मंत्री जा का प्यारा पालतू कुत्ता कहीं खो जाये तो प्रदेश की पूरी ताकत उसे ढूढ़ने में लगा दी जाती है। मगर यहां न तो उनका पालतू कुत्ता खोया है और नहीं उनका कोई सगे वाला इस दौरान हताहत हुआ है। इस लिये यदि यह कहा जाये कि सरकार इस मामले में शिथिल रवैया अपनाये हुए है तो यह कदाचित गलत नहीं होगा। सरकारे इन मसलों पर पीडितों दिलासा देने के अलावा कुछ नहीं कर सकती हैं। अरे हां मैं तो यह भूल ही गया था कि पीडितों को सरकार की तरफ से मुआवजा़ भी दिया जाता है मगर हमारी सरकारें यह भूल रहीं हैं कि बापू के चिन्ह वाले उन नोटों से नम आंखों के आंसू नहीं पोछे जा सकते हैं। उन नोटों में जान नहीं होती है और न ही ये उन जानों की कीमत लगा सकती हैं। इन हालातों को देखते हुए यदि यह कहा जाये कि सरकारों में नक्सलियों से निपटने की दृढ इच्छाशक्ति का आभाव है तो इसमें कोई अतिशियोक्ति नहीं होगी। इसी वजह से केंद्र सरकार और प्रदेश सरकार के बीच तालमेल के आभाव गहराती को खाई साफ देखा जा सकता है।

यहां बताते चलें कि दंातेवाड़ा हमले के बाद गठित एक सदस्यीय ई0 एन0 राममोहन कमिटी ने अपनी रीपोर्ट में सीआरपीएफ की नक्सलियों से लोहा लेने की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाते हुये अपनी रणनीति बदलने की सलाह भी दी थी। इस रापोर्ट को केन्द्रीय गृह मंत्री पी0 चिदंबरम ने काफी गंभीरता से लिया था और इसे अमलीय जामा पहनाने का निर्देश दिया था मगर वही ढाक के तीन पात कि केन्द्र के निर्देश का अभी तक तो देखने में नहीं आया है।

इसे सरकार का आनन फानन में लिया गया कदम ही करेंगे कि जम्मू कश्मीर में आतंकवादियों का सामना कर रहें जवानों को बगैर किसी विशेष प्रशिक्षण के नक्सल प्रभावित इलाके में भेज दिया गया या यूं कहें कि नक्सलियों के आगे डाल दिया गया। यह भी देखने की चेष्टा नहीं की गई कि क्या वे मानसिक और शारीरिक तौर पर इतने सुदृढ हैं कि इन विषम परिस्थियों का सामना कर सकें।

अगर इस पूरे मामले की थोड़ी गहराई में उतरा जाये तो पायेंगे कि इस छोटे से ज़ख़्म जिसे ठीक किया जा सकता था, राजनीतिकरण ने उसे नासूर बना दिया। जब छतीसगढ़ में कोई भी नक्सली हमला हुआ हर बार विपक्ष ने इस पर हाय तौबा मचाई और ख़ूब राजनीति भी खेली मगर कभी यह प्रयास नहीं किया इस मसले का मिल बैठ कर सामाधान निकाला जाये। देखा जाये तो पूरे देश में कुछ इस तरह का माहौल व्याप्त हो चुका है कि नक्सलवाद के लिये पूरी तरह से र्सिफ केंद्र सरकार ही जिम्मेदार है। लेकिन ज़मीनी स्तर की सच्चाई तो यह है कि नक्सलियों और माओवादियों ने निपटाने की पूर्णत्या जिम्मेदारी प्रदेश सरकार की ही होती है। केंद्र सरकार इसमें बस सहयोग कर सकती है, मार्गदर्शन या दिशानिर्देश दे सकती है प्रदेश सरकार की जगह आ कर उनका काम अपने हाथ में नहीं ले सकती है। एक वक्त में आंद्र प्रदेश के हालात छत्तीसगढ़ जैसे ही थे मगर वहां की सरकार ने अपने बूते मोर्चा खोला जिसका नतीजा यह हुआ कि अब वहां के हाताल काफी सुधर गये हैं। आज जो हाल छत्तिसगढ़ का है वही कमोबेश बीहार, झारखंड़, उड़ीसा और बंगाल का है। यहां की सरकारें बगै़र रीढ़ वाली है जिसका सीधा फायदा माओवादियों को मिल रहा है। इन राज्यों में ज़रूरत है पुलिस बल को सुदृढ़ बनाने की क्योंकि बगैर सुदृढ़ पुलिस के केंद्रीय सूरक्षा बल भी अपने हाथ कटे हुए महसूस करेगा और परिणाम स्वरूप ज़्यादा सहायता नहीं कर पायेगा। सबसे बड़ा अंतर तब देखने को मिलेगा जब इन मुद्दों का राजनीतिकरण नहीं होगा और एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप की बजाये एकसार हो कर इन परिस्थितियों का सामना किया जायेगा।