गांधी जी की पूछ आज ज्यादा है
मोहन दास करमचंद गांधी जिन्हें हम गांधी और बापू के नाम से भी जानते हैं, की पूछ शायद आजादी के लिए उतनी नहीं रही होगी जितनी आज आजादी के बाद है। आप सोच रहे होंगे कि मैं यह क्या कह रहा हूं। तो मैं आपको बता दंू कि मैं आज के गांधी जी यानिकि रुपए की बात कर रहा हूं। आज गांधी और उनकी कही बातेें तो किसी को याद तो नहीं हैं लेकिन रुपए के लिए सब पागल हैं। चाहे वह जैसे भी आए, आना चाहिए। क्योंकि रुपए तो रुपए होते हैं। इस जन्मजात बीमारी से आम जनता और यकीन्न हमा राजनेता भी ग्रसित हैं। तभी तो आए दिन कोई न कोई ोटाला सामने आ रहा है। शुरुआत राष्ट्रमंडल खेल ोटले से हुई। इसके बाद तो जैसे ोटाले उजागर होने का दौर ही शुुरु हो गया हो। २जी स्पेक्ट्रम, आर्दश सोसायटी और न जाने कितने ही इस कतार में अपना नाम गिने जाने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। लेकिन मैं उनका नाम लेकर उनकी शाने चार चांद नहीं लगाना चाहता।
बात यहां रुपए की प्रभुत्व की और भी पुख्ता हो जाती है कि प्रधानमंत्री तक खुद को इसके आगे बेबस बताते हैं। इलेक्ट्रानिक मीडिया के संपादकों के साथ हुई बैठक से इस बात को और बल मिलता है। बैठक में प्रधानमंत्री ने साफ तौर पर कहा कि वे बेबस हैं। गठबंधन सरकार की कुछ मजबूरियां होती हैं। इनके अंदर रह कर ही सरका को काम करना होता है।
चलो यह सब तो राजनीतिक बातें थी। सरकार के मन में क्या है यह जग जाहिर है। सरकार किसी भी तरह अपनी कुर्सी बचाना चाहती है। इसमें प्रधानमंत्री भी पीछे नहीं हैं। वह भी अपनी कुर्सी और उसके जाने के बाद का प्रबंध कर लेना चाहते हैं। इसके लिए उनके पास मात्र तीन वर्षों का समय शेष है। इसी लिए वह ऐसे बयान दे रहे हैं। लेकिन सोचने वाली बात है कि आखिर क्या वजह है कि इस सरकार के दौरान इतने सा ोटाले हुए और वह भी इतनी आसानी से। इस सवाल के जावाब में अगर केंद्र सरकार यह कहे कि उसके पास इस सवाल का जवाब नहीं है तो मैं यह ही कूंगा कि यह बात कुछ हजम नहीं हुई। ऐसा हो ही नहीं सकता कि नेता सरकार के नाक के नीचे से उसकी मंूछ काट कर ले जाए और सरकार को पता ही न चले। शक यह भी होता है कि कहीं इन सब में सरकार भी बराब की भागेदार है। यह सवाल मे मन में ही नहीं बल्कि पू भारतवासियों के मन में उठ रहा होगा। इस सवाल का जवाब किसी बे़ से पूछने पर तो आसानी से मिल ही जाएगा। लेकिन आज कि माहौल में इस सवाल का जवाब एक बच्चा भी दे देगा क्योंकि उसे यह पता है कि जनता के साथ होने का दम भरने वालों का असली चेहरा क्या है। सरकार के लिए इज्जत कितनी है एक गरीब से बेहतर कोई नहीं बता पाएगा क्योंकि इस र्दद हो वह ही समझ सकता है जो रातों को पेट अपनी पीठ से जो कर सोता है। दलितों के रों में जा कर राजनीति करने से यह बात छिप नहीं जाती।
आज गांधी की उपयोगिता इतनी ज्यादा है कि कोई बिगत़ा काम इसके प्रयोग से आसानी से बन सकता है। इसका जीवंत उदाहरण नीरा राडिया और बे़ उद्योग रानों के लिए हुई लॉबिंग से लगा सकते हैं। यह सिर्फ बे़ स्तर पर ही नहीं बल्कि छोटे स्तर पर भी शुरु हो जाता है। चाहे वह एक सरकारह दफतर का प्यून की क्यों न हो। चाय पानी की मांग तो जैसे उसका जन्मसिद्ध अधिकार है। इन सब बातों कोच कर गुस्सा आता है लेकिन यह सोच कर खुद ही चुप हो जाता ूं कि यहां पर कुछ तक कुछ नहीं हो सकता जब तक हम नकली गांधी जगह असली गांधी को नहीं देेते।