प्रधानमंत्री के बयान पर अफसोस होता है!
देश में बढ़ते •ा्रष्टाचार को लेकर केंद्र सरकार हर तरफ से घिरती दिखाई दे रही है। एक तरफ विपक्ष और वामदल तो दूसरी तरफ देश की करोड़ से •ाी अधिक की जनता। जिसकी उम्मीदों पर आघात ख्ुाद केंद्र सरकार ने ही किया है। आसमान में उड़ती सरकार जमीन पर तो आनी ही थी। हुआ •ाी यही। अपने सरकार के बचाव में प्रधानमंत्री खुद सामने आए। या यूं कहें कि प्रधानमंत्री को तुरुप के इक्के की तरह •ोजा गया।
प्रधानमंत्री आए और मीडिया के सामने अपने हार और लाचारी की दास्तान परोस दी। प्रधानमंत्री ने कहा कि गठबंधन सरकार की कुछ मजबूरियां होती हैं। केंद्र सरकार •ाी कुछ ऐसी ही स्थिति से गुजर रही है। पूर्व टेलिकॉम मंत्री ए राजा कांग्रेस की नहीं डीएमके के खास थे। डीएमके के सुझाव पर ही राजा को टेलिकॉम मंत्री बनाया गया था। इन विरोधा•ाासी बयानों के बाद लागों की प्रतिक्रियाएं आनी तो स्व•ााविक थीं। ऐसा हुआ •ाी। कुछ ने प्रधानमंत्री को धृतराष्ट्र बोल डाला तो कुछ ने उनसे इस्तीफे की मांग कर डाली। आखिर हो •ाी क्यों न, उन्होंने •ाी कई बार बच्चों की तरह बायान दिये जिससे लोगों की •ाावनाए तो आहत हुई ही, विरोधियों को राजनीति करने का एक और बना बनाया मुद्दा मिल गया। जिस पर राजनीति •ाी उम्मीद के मुताबिक देखने को मिली।
इन सब के बाद •ाी प्रधानमंत्री के झुकी हुई रीढ़ वाले नेताओं सरीके बयान ने कुछ सवाल खडेÞ कर दिये। इनका जवाब होने पर •ाी शायद प्रधानमंत्री देना नहीं चाहेंगे। सवाल जैसे क्या गठबंधन सरकार की मजबूरी के नाम पर •ा्रष्टाचार को जायज ठहराया जा सकता है? क्या प्रधानमंत्री की बात का यह मतलब निकाला जाना चाहिए कि उन्होंने एक तरह से यह साफ कर दिया है कि इस सरकार के रहते •ा्रष्टाचार को रोकना सं•ाव नहीं है? क्या प्रधानमंत्री ने घोटालों का दोष जनता पर ही मढ़ दिया है, क्योंकि जनता ने कांग्रेस को पूर्ण बहुमत से सत्ता में नहीं लौटाया? और सबसे अंत में सबसे जरूरी सवाल कि क्या प्रधानमंत्री अपनी जिम्मेदारियों से बच सकते हैं?
अगर इन सवालों का जवाब देश की आम जनता जो रोज दो वक्त की रोटी के लिए •ाागती दौड़ती है तो जवाब सबको पता है क्या मिलेगा। हमारी सरकार को यह सोचने की आवश्यक्ता है कि क्या सरकार को सोचने की जब हर जगह सरकार की मट्टी पलीत हो रही है तब उसे क्या करना चाहिए? वह काम जो वहा अब तक करती आई है या वह काम जिसके लिए देश की जनता ने उसे चुना था?
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