65 साल की आज़ादी के बाद
आज स्वतंत्रता दिवस के इस पावन मौके पर जब देश 65 साल की आज़ादी के बाद अपना 66 वां स्वतंत्रता दिवस मना रहा है, तो मैं ये समझ नहीं पा रहा हूं कि आज के दिन खुशियां मनाऊं या अफसोस जताऊं। क्योंकि 65 साल की आज़ादी के बाद ऐसी कई चीज़े हैं जिनपर फक्र किया जाए तो वहीं कई चीज़े ऐसी भी जिनपर शर्म आता और दुर्भाग्यपूर्ण बात तो यह है कि इनकी संख्या है ज़्यादा है।
ऐसा इस लिए हैं क्योंकि शायद देश की मांओं के कोख ने अब्राहम लिंकन और जॉर्ज वॉशिंग्टन सरीखे लोगों को जन्म देना शायद बंद कर दिया है जिनके दूरदर्शीता ने कभी के गुलाम अमेरिका को आज का विकसित अमेरिका बना दिया और दुनिया के सामने विकास की नई परिभाषा दी। जिनको इस देश की मांओं जनमा भी उन्होंने खुद को राजनीतिक परिवेश से दूर रखा। मानो माओं की कोख ने सिर्फ ऐसे लोगों को ही जना जिन्हें भारत के आखरी गवर्नर माउंटबैटन की संज्ञा दी जा सकती है अतिशियोक्ति नहीं होगी। ये सभी जनता के नुमाइंदों ने देश को धर्म, जाति-पाति, अमीर-गरीब, भाषा आदि के नाम पर बांटने की कोशिश करते आ रहे हैं और आज भी कर रहे हैं। इस प्रयास का जीवंत उदाहरण 'तेलंगाना' का मुद्दा हमारे सामने है।
हालात तो इसी ओर कुछ इसी ओर इशारा करते हैं कि हमने इतिहास दोहराते हुए उससे कोई सबक नहीं सीखा है। आज मांग राज्य की है लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि कल मांग अलग देश की नहीं होगी। बंटवारे के इस नाग ने पहले देश को डंसा जिसका फलस्वरूप पाकिस्तान और बांग्लादेश हमारे सामने हैं। यह कहना ग़लत नहीं होगा कि पहले की पाकिस्तान और बांग्लादेश तो बंट चुका है और न जाने कितनों का प्रयास होगा। कश्मीर का मुद्दा आज भी बड़े भाई भारत और छोटे भाई पाकिस्तान के बीच कड़वाहट पैदा कर देता है। नतीजा दोनों देशों के सियासतदानों के दिमाग में तनाव और माथे पर बल पैदा करता हो जाता है। समस्या इतनी विकराल रूप ले रही है या ले चुकी है इसका अंदाज़ा इससे ही लगाया जा सकता है बीते 65 साल में दोनों देशों की सियासी ताक़तें इसका नहीं निकाल पाई हैं।
अगर पिछली बातों को छोड़ दें तो भी एक मुद्दा ऐसा है जो देश के सामने मुंह बाए खड़ा है। ये मुद्दा कुछ और नहीं बल्की विकास का है जिसे भारत का हर नागरिक सोते-जागते देखता है। लेकिन शायद लोगों के सोंच की रफ्तार और देश के सियासतदानों के काम करने की रफ्तार में फर्क है तभी देश आज भी देश विकासशील देशों की कतार में खड़ा है। अगर इतिहास के झंरोखे से झांके तो देश के इन माउंटबैटनों संख्य संसद में जितनी भी रही हो (चाहे 15 अगस्त 1947 को नेहरू के मंत्रीमंडल में 19 मंत्रियों की रही हो या फिर आज के यूपीए सरकार के मंत्रीमंडल की) राजनैतिक इच्छाशक्ति का अभाव देश ने देखा है, नतीजा आपके सामने है।
1947 की 9 करोड़ की आबादी के भारत से लेकर आज के 1 अरब से ज़्यादा आबादी के इंडिया के बदलाव का गवाह देश की आबादी का एक तबका रहा है और बड़ी और जवान होता नसल ने इसे महसूस किया है। लेकिन इन्हीं लोगों ने उन देशों की तरक्की भी देखी है जहां आज भारत का हर नागरिक जा कर पैसा कमाने और बसने का सपना देखता है। दोनों देशों के बीच की खाई भी काफी ज़्यादा और फासला भी। इन देशों ने भारत की आज़ादी के कुल सालों के आधे में खुद को विकसित क़रार दे दिया था। इसका प्रमाण हमें अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान सरीखे कई देशों से मिलता है, लेकिन आज भी हम वही हैं 'ढ़ाक के तीन पात', 65 साल में चले भी तो दो कोस।
दरअसल इस देश के हालात कुछ ऐसे हैं कि राजनीति में कदम रखने वाला हर शक्स खुद को देश का राजा और जनता को अपना निजी दास समझता है। वास्तविक्ता यही है और मुझे लगता है कि अपनी इस बात को साबित करने के लिए किसी साक्ष्य की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि इस संबंध में देश के हालात बीते दिनों हुए आंदोलनों में लोगो ने सड़क पर उतर कर और राजनेताओं ने अपनी कुर्सियों से चिपक कर ख़ुद ही साबित कर दिया है। देश के रातनीतिक हालात ऐसे होने के कई कारण हैं जिनपर फिर कभी बात करेंगे।
इन सब के बीच एक तस्वीर और उभर कर सामने आती है, देश के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की। प्रणब दा ने पिछले महीने ही बतौर राष्ट्रपति पदभार संभाला है। लेकिन कल राष्ट्र को संबोधित करते हुए प्रणब दा कुछ ऐसा कह गए जिसे सुन कर राष्ट्रपिता के कदमों पर चलने वालों को बुरा लगा होगा। दा दा ने कहा कि बार-बार आंदोलन करने से देश में अराजक्ता बढ़ती है। इशारा अन्ना हज़ारे और रामदेव के भ्रष्टाचार, कालेधन और लोकपाल कानून को पास करने को लेकर दिल्ली में बार-बार किए गए अनशन और उस अनशन में लोगों के समर्थन की ओर था। लगता है कि प्रणब दा इन बातों को बोलने से पहले ये भूल गए थे कि गांधी जी की इन्हीं अनशनों और आंदोलनों का नतीजा था कि अंग्रेज़ों को देश छोड़ कर जाना पड़ा और आज हम अपना 66 वां स्वतंत्रता दिवस गर्व से मना रहे हैं। लेकिन इस सोच के लिए सिर्फ राष्ट्रपति को ही ज़िम्मेदार ठहराना ठीक नहीं होगा क्योंकि सन 1946 से ही कांग्रेस ने गांधी जी को पार्टी में सीनीयर सिटिज़न का दर्दा देते हुए धीरे धीरे किनारे करना शुरू कर दिया था। शायद इसी लिए गांधी जी का विश्वास और विचारों की हत्या उस दिन भी हुई थी जिस दिन देश का बंटवारा हुआ था और उनके विश्वास और विचारों की हत्या आज भी कई स्तर पर रोज़ हो रही है।
इन सभी बातों के बीच मैं दोबारा अपने उसी सवाल पर वापस आ गया हूं कि मैं आज स्वतंत्रता दिवस के मौके पर खुशियां मनाऊं या अफसोस जताऊं।