Monday, November 29, 2010

क्या हमने भ्रश्टाचार को अपना लिया है?

क्या हमने भ्रश्टाचार को अपना लिया है, सवाल छोटा मगर बेहद जटिल और हमारी समाजिक जड़ों को हिलाने वाला है। आप भले ही इसे झूठ कहें लेकिन वास्तविक्ता तो यही है कि हमने भ्रश्टाचार को अपने जिन्दगी में अपना लिया है और अब हमारा प्रतिक्रिया इसके प्रति उतनी सजग नहीं रही जितनी की एक द ाक पहले हुआ करती थी। कहा जा सकता है कि हम अब परिपक्व हो गये हैं। हमारे अंदर यह परिपक्वता भाायद इस लिये भी आ गई है क्यों कि हम भ्रश्टाचार के आदि हो चुके हैंं। अभी हाल की ही बात ले लीजिये, कुछ ही दिनों पहले कॉमनवेल्थ खेलों से जुड़े भ्रश्टाचार के मामले का हल सरकार निकाल ही नहीं पायी थी कि उसके बाद आर्द ा सोसाइटि घोटाला, २ जी स्पेक्ट्रम घोटाला सामने आ गया। र्वतमान हालात को देखते हुए ऐसा लगता है कि जैसे घोटालों का परदाफा ा करने के लिये एक बयार सी चली हो जो सारे घोटालों की परते उधेड़ती जा रही है।
लेकिन अगर भ्रश्टाचार के प्रति हमारी उदासीनता का सकारात्मक पहलू देखें तो अब सरकारें इसके नाम पर वोटों की फसल नहीं काट सकती हैं। ऐसा इस लिये है क्यों कि हम वह भली भंती जान चुके हैं कि चाहे वह कोई भी पार्टी हो, उसके दामन भी भ्रश्टाचार के दागों से बचे नहीं हैं। आखिर कार चोर चोर मौसेरे भाई जो होते हैं।
खास बात यह है कि ये उदासीनता हमारे दो रवैयों को प्रस्तुत करती है। पहला यह कि अब हम भ्रश्टाचार से ऊब गये हैं क्यों कि हमने यह मान लिया है कि ऐसा तो होना ही है। दूसरा पहलू यह है कि हमारा मध्ययम वर्गीय समाज की दिलचस्पी राजनीति की ओर न हो कर अपने भविश्य, महंगाई और रोज मर्रा के कामों में भागते बीतती है। रही बात गरीब तबके की या उनकी जो गावों में रहते हैं, उन्हें तो चुनावों के दौरान कुछ रूपयों, उपहारों, भाराब की बोतलों और बिरयानी की पैकटों से आसानी से खरीदी जा सकता है और जो की असल जिन्दगी में किसी से छिपा नहीं है।
ल्ेिकन पूरे दे ा की जड़ों में आपनी पैठ बना चुकी इस भ्रश्टाचार के लिये हम सिर्फ सरकारों और न्यायिक प्रक्रिया को दोशी नहीं ठहराया जा सकता। वास्तविक्ता यह है कि हम भी इस भ्रश्टाचार के विस्तार में बराबर के दोशी हैं। हमने अपने और दूसरों के लिये भ्रश्टाचार की दो परिभाशाऐं, दो मानक बना रखें हैं। यदि भ्रश्टाचार से हमें फायदा हो रहा है तो वह सही है और भ्रश्टाचार नहीं है और कहीं अगर नुक्सान या गलत हो रहा हो तो वह भ्रश्टाचार है। फलस्वरूप हम उसके लिये हायतौबा मचाने लगते हैं।
विद्वानों के बीच में अरसे यह मुददा सुर्खियों में रहा है और इसके हल के लिये तीन उपाय सुझाये हैं जो कि मेरे विचार से व्यर्थ हैं। तीन में से एक तरीका जो सुझाया गया वह है 'सख्त कानून व्यवस्था और केसों का तेज निपटारा।` जहां यह सुझाव हमारी लोचपूर्ण और लचर न्याय व्यवस्था की ओर इ ाारा करता है वहीं एक सवाल भी खड़ा करता है कि जब र्वतमान परिपेक्ष में गवाहों और सबूतो को आसानी से खरीदा या मिटाया जा सकता है तो क्या यही केसों के तेज निपटारे के वक्त नहीं होगा? मुझे नहीं लगता कि यह कोई असम्भव कार्य है। दूसरा तरीका जो सुझाया गया वह यह कि सरकारी कार्यों में पारदि र्ाता का स्तर इतना बढ़ा दिया जाये कि सब कुछ लोगों की आंखों के सामने हो। मेरे विचार से भाायद इसी सुझाव पर काम करते हुए सरकार ने सूचना का अधिकार कानून को अस्तित्व में लाई थी जिसने सरकारी कार्यों में पारदि र्ाता का स्तर काफी बढ़ा दिया है। लेकिन वास्तविक्ता यह है कि यह अधिकार भी एक हद पर जा के समाप्त हो जाता है। तीसरा सुझाव था कि लोगों को भ्रश्टाचार के प्रति जागरूक बनाया जाये ताकि वे उसके खिलाफ उचित कदम उठा सकें। मैं अगर सही कहंू तो सबसे ज्यादा ना उम्मीद मुझे इसी सुझाव ने किया है क्योंकि जब हमने भश्टाचार को अपना रखा है तो उसे कैसे हटा सकते हैं। यह एक कटु सत्य है कि अपने अपने स्तर पर हम सभी भ्रश्ट हैं और उसे बढ़ावा देते हैं।
लेकिन जो सबसे डरावना पहलू है वह यह है कि जब किसी समाज में भ्रश्टाचार को अपने लिये जाता है तो उस समाज में भ्रश्टाचार की कोई सीमा नहीं रह जाती है और जिसे रोकना नामुमकिन हो जाता है। मेरा यह लेख सीधे तौर पर दे ा की एक भयावह चेहरा प्रस्तुत कर रहा है लेकिन वास्तविक्ता यही है।

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