Monday, November 29, 2010

बिहार का जनमत

अभी हाल ही में हुये बिहार विधान सभा चुनावों में नितीश कुमार और भाजपा गठबंधन ने दोबारा बाजी मार ली है। ऐेसा जनमत तो स्वभाविक था लेकिन लागों का इतना झुकाव और सर्मथन का सपना तो नितीश ने भी नहीं देखा होगा और इसमें कोई शक नहीं कि दोनों ही खुशी से फूले नहीं समा रहे होंगे। ऐसा होना भी चाहिये था क्योंकि बिहार में नितीश ने वो कर के दिखाया था जो कि प्रदेश के इतिहास में कभी नहीं हुआ। हां लालू प्रसाद यादव और राबड़ी देवी के वक्त बिहार आगे तो नहीं आया लेकिन १५-२० साल पीछे जरूर चला गया। एक वक्त था जब बिहार में यह कहावत प्रचलित थी 'जब तक रहेगा समोसे में आलू तब तक रहेगा बिहार में लालू।` आज समोसे में आलू तो है लेकिन बिहार में लालू नहीं। पिछली बार की तरह इस बार भी चुनावों में लालू प्रसाद यादव को मुंह की खानी पड़ी लेकिन यह कहना गलत नहीं होगा कि पिछली बार तो कम लेकिन इस बार कहीं ज्यादा खानी पड़ी है।
बिहार में राजनीतिक समीकरणों के बदलने की वजह साफ है, अब बिहार की जनता उन्नती चाहती है। अब उसे और बरगलाना किसी भी राजनीतिक पार्टी के लिये आसान न होगा जो कि इस बार के जनाधार से साफ हो गया है। बिहार की जनता का यह स्भाव स्भाविक भी है, जब सब आगे बढ़ रहे हैं तो बिहार आखिर पिछड़ेपन की मार कब तक झेलता रहेगा? कब तक उसके साथ सौतेलों सरीके व्याहार होता रहेगा? बिहार के पिछड़ेपन की गवाही सिर्फ लोग ही नहीं बल्कि आंकड़े भी कुछ इसी ओर ईशारा करते हैं। चाहे वह शिक्षा का क्षेत्र हो या फिर कोई और, बिहार अन्य राज्यों की तुलना में काफी पीछे खड़ा नजर आता है। अगर प्रति व्यक्ति आय की बात की जाये तो पूरे देश की प्रति व्यक्ति आय जहां ४० से ५० हजार सालाना के बीच है वहीं बिहार की १३ हजार से कुछ अधिक पर दम तोड़ देती है।
अगर बिहार और उसके लोगों के साथ हुए सौतेलेपन की बात करें तो दोनों ही राजनीतिक और व्यक्तिगत तौर पर बिहार के साथ काफी अन्याय हुआ है। कई पंच वर्षिय योजनाओं में प्रदेश को केंद्र से पूरा पैसे हासिल नहीं हुये और व्यक्तिगत तौर पर बिहार के नागरिकों के साथ महाराष्ट्र, दिल्ली और देश के अन्य राज्यों में कैसा व्योहार होता है जग जाहिर है। पिछले दशकों में बिहार में कोई नया उद्योग नहीं लगा और जिन्होंने प्रदेश में निवेश किया था वे भी जाते रहे। अब जब नितीश को जनता ने दोबारा चुन कर मुख्यमंत्री के पद पर बैठाया है तो उनके पास वापिस से पांच साल का वक्त उस नींव पर ईमारत खड़ी करने के लिये जो कि उन्होंने पिछले पांच सालों मंे अपने कार्यकाल के दौरान डाली थी।

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