Saturday, July 3, 2010


नक्सलियों के आगे बौनी सरकार

छत्तीसगढ़ सरकार नक्सलियों के आगे घुटने टेकते दिखाई दे रही है। यह तथ्य और उजागर तब और हुआ जब गत मंगलवार को नारायणपुर जिले में नक्सलियों ने सीआरपीएफ के 26 जवानों को मौत के घाट उतार दिया था। बताया जाता है कि तब हुई जब जवान दौराई रोड़ से पैदल ही कैंप को लौट रहे थे।

लगातार हो रहे नक्सलियों के हमलों से एक बात तो उजागर ज़रूर हुई है कि चाहे राज्य और केंद्र सरकारें नक्सलियों की चुनौती को अपने अपने बयानों में कितना भी गंम्भीर मामला बतायें और उनसे निपटने के लिये चाहे कितने भी उपायों पर काम करने की बात कहें मगर ज़मीनी हक़ीकत तो यही है कि नक्सल विरोधी अभियान कि गति वही है जो कि किसी सरकारी दफतर में सरकारी काम की होती है, बेहद सुस्त, ढीली और लचर। देखा जाये तो इसमें सरकारों की भी कोई गलती नहीं है क्योंकि इन नक्सली हमलों में किसी सरकारी मंत्री का कोई सगेवाला या कोई रिश्तेदार तो नहीं हताहत हुआ है ना। अगर सरकार के किसी मंत्री जा का प्यारा पालतू कुत्ता कहीं खो जाये तो प्रदेश की पूरी ताकत उसे ढूढ़ने में लगा दी जाती है। मगर यहां न तो उनका पालतू कुत्ता खोया है और नहीं उनका कोई सगे वाला इस दौरान हताहत हुआ है। इस लिये यदि यह कहा जाये कि सरकार इस मामले में शिथिल रवैया अपनाये हुए है तो यह कदाचित गलत नहीं होगा। सरकारे इन मसलों पर पीडितों दिलासा देने के अलावा कुछ नहीं कर सकती हैं। अरे हां मैं तो यह भूल ही गया था कि पीडितों को सरकार की तरफ से मुआवजा़ भी दिया जाता है मगर हमारी सरकारें यह भूल रहीं हैं कि बापू के चिन्ह वाले उन नोटों से नम आंखों के आंसू नहीं पोछे जा सकते हैं। उन नोटों में जान नहीं होती है और न ही ये उन जानों की कीमत लगा सकती हैं। इन हालातों को देखते हुए यदि यह कहा जाये कि सरकारों में नक्सलियों से निपटने की दृढ इच्छाशक्ति का आभाव है तो इसमें कोई अतिशियोक्ति नहीं होगी। इसी वजह से केंद्र सरकार और प्रदेश सरकार के बीच तालमेल के आभाव गहराती को खाई साफ देखा जा सकता है।

यहां बताते चलें कि दंातेवाड़ा हमले के बाद गठित एक सदस्यीय ई0 एन0 राममोहन कमिटी ने अपनी रीपोर्ट में सीआरपीएफ की नक्सलियों से लोहा लेने की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाते हुये अपनी रणनीति बदलने की सलाह भी दी थी। इस रापोर्ट को केन्द्रीय गृह मंत्री पी0 चिदंबरम ने काफी गंभीरता से लिया था और इसे अमलीय जामा पहनाने का निर्देश दिया था मगर वही ढाक के तीन पात कि केन्द्र के निर्देश का अभी तक तो देखने में नहीं आया है।

इसे सरकार का आनन फानन में लिया गया कदम ही करेंगे कि जम्मू कश्मीर में आतंकवादियों का सामना कर रहें जवानों को बगैर किसी विशेष प्रशिक्षण के नक्सल प्रभावित इलाके में भेज दिया गया या यूं कहें कि नक्सलियों के आगे डाल दिया गया। यह भी देखने की चेष्टा नहीं की गई कि क्या वे मानसिक और शारीरिक तौर पर इतने सुदृढ हैं कि इन विषम परिस्थियों का सामना कर सकें।

अगर इस पूरे मामले की थोड़ी गहराई में उतरा जाये तो पायेंगे कि इस छोटे से ज़ख़्म जिसे ठीक किया जा सकता था, राजनीतिकरण ने उसे नासूर बना दिया। जब छतीसगढ़ में कोई भी नक्सली हमला हुआ हर बार विपक्ष ने इस पर हाय तौबा मचाई और ख़ूब राजनीति भी खेली मगर कभी यह प्रयास नहीं किया इस मसले का मिल बैठ कर सामाधान निकाला जाये। देखा जाये तो पूरे देश में कुछ इस तरह का माहौल व्याप्त हो चुका है कि नक्सलवाद के लिये पूरी तरह से र्सिफ केंद्र सरकार ही जिम्मेदार है। लेकिन ज़मीनी स्तर की सच्चाई तो यह है कि नक्सलियों और माओवादियों ने निपटाने की पूर्णत्या जिम्मेदारी प्रदेश सरकार की ही होती है। केंद्र सरकार इसमें बस सहयोग कर सकती है, मार्गदर्शन या दिशानिर्देश दे सकती है प्रदेश सरकार की जगह आ कर उनका काम अपने हाथ में नहीं ले सकती है। एक वक्त में आंद्र प्रदेश के हालात छत्तीसगढ़ जैसे ही थे मगर वहां की सरकार ने अपने बूते मोर्चा खोला जिसका नतीजा यह हुआ कि अब वहां के हाताल काफी सुधर गये हैं। आज जो हाल छत्तिसगढ़ का है वही कमोबेश बीहार, झारखंड़, उड़ीसा और बंगाल का है। यहां की सरकारें बगै़र रीढ़ वाली है जिसका सीधा फायदा माओवादियों को मिल रहा है। इन राज्यों में ज़रूरत है पुलिस बल को सुदृढ़ बनाने की क्योंकि बगैर सुदृढ़ पुलिस के केंद्रीय सूरक्षा बल भी अपने हाथ कटे हुए महसूस करेगा और परिणाम स्वरूप ज़्यादा सहायता नहीं कर पायेगा। सबसे बड़ा अंतर तब देखने को मिलेगा जब इन मुद्दों का राजनीतिकरण नहीं होगा और एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप की बजाये एकसार हो कर इन परिस्थितियों का सामना किया जायेगा।

1 comment:

  1. कुछ ठोस कदम तो उठाने होंगे.

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