Wednesday, July 14, 2010



कश्मीर और भारत

कश्मीर, भारत कर ताज, भारत का स्वर्ग और न जाने किन किन नामों से हम संबोधित करते रहे हैं। यहां की डल ऋझील और गृह नौकाएं, बर्फ के पहाड़ और चारो तरफ हरी भरी छटा हमेशा से अपनी ओर आकर्षित करती रही हैं। इन मनमोहक नजारों को मैंने और आपने फिल्मों में भी खूब देखा होगा और जिन लोगों को यहां आने का मौका मिला उनके लिये ये सोने पे सुहागा जैसे बात रही होगी। मगर जब से आतंकवाद ने अपने कदम वहां रखे तब से कश्मीर की फिजाओं में मानो ज़हर घुल गया हो।  इस पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद ने वहां ऐसा माहौल पैदा कर दिया कि लोग वहां जाने से कतराने लगे। हालात को नियंत्रित करने के उद्येश्य से वहां सेना भी मौके बेमौके आती रही है और आतंकवाद रूपी नाग के न केवल दांत तोड़ती बल्कि फन भी कुचलती रही है।

बीच में कवायद रंग लाई और कश्मीर के हालात सुधरने लगे थे और घाटी की पुकार फिर से लोगों के कानों में पड़ने लगी थी। इस बीच मैं भी अपने माता पिता के संग वहां हो आया। माहौल तो शांत था मगर लोंगों के चेहरे पर मौत के डर, खून और चीख पुकार की छाई खामोशी बखूबी देखी जा सकती थी। प्रमुख स्थलों और बाज़ारों में सुरक्षा बलों की टुकड़ीयां तैनात दिखी जो जाने अनजाने हमें हमेशा सजग रहने की हिदायत देती और वहां की घ्सटनाओं को याद दिलाती थी। मगर घाटी का शांत माहौल ज्यादा दिनों तक शांत नहीं रह पाया और एक बार फिर आतंकियों ने बंदूकों के साये तले आतंक का नंगा नाच फिर से शुरू कर दिया। सीआरपीएफ और पुलिस बल के जवान तो वहां कायम थे ही सेना के आने और जाने का सिलसिला बादस्तूर जारी था।

आतंकवाद से लड़ते लड़ते सुरक्षा बलों की आंखों ने इतना खून देख लिया कि शायद कि वे अपने और आतंकवादियों मंे ज़्यादा फर्क न कर पाये और कई अमानवीय घटनाओं को अंजाम दे बैठे। आतंवाद के नाम पर वहां के बाशिंदों का फर्जी एनकाउंटर, अवैध हिरासत, बलातकार जैसी घटनाओं से अपने साफ छवी बेदाग न रख पाये और गंदी कर बैठे। सरकार का सारा ध्यान पाक प्रायोजित आतंकवाद पर था और है शायद इसी वजह से उसका ध्यान इस घटनाओं की ओर नहीं हो पाया। जब रक्षक भक्षक बन रहा था तब सरकारें आतंवाद से ग्रसित कश्मीर से चिंतित थी और उसे मुक्ति दिलाने के प्रयासों में लगी थी जो आज तक जारी है। इन्हीं सारी वजहों से आम जनता की भावनाये आहत होने लगी और वे खुद को सभी के बीच अकेला और असहज महसूस करने लगी। इस बीच खबरों का बाजार भी गरम रहा कि घाटी के नौजवान पाकिस्तान जा कर आतंकवादियों से हाथ मिला बैठे हैं और प्रशिक्षण ले कर भारत के ही खिलाफ हथियार उठा रहे हैं। शायद लोगों की ये प्रतिक्रिया उन्हीं आहत भावनाओं के फल स्वरूप रही होगी। मगर इसके से ही आत्मसमर्पण और वतन वापसी की खबरें भी आती रही। अभी हाल ही में ऐ वाक्या जो मुझे याद है वो ये कि एक शक्स जो लश्कर-ए-तैयबा में शामिल हो गया था, वहां के माहौल से परेशान हो कर वतन वापसी की राह में सीमा पार करते वक्त सुरक्षा बलों द्वारा पकड़ लिया गया। कई समाचार पत्रों ने उसका साक्षतकार भी छापा था जिसमें ये भी बताया गया कि उसके जैसे ही और भारतीय कश्मीरी नागरिक जो आतंकवादीयों के शिविरों में प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे हैं वे भी वतन वापसी की फिराक्त में हैं।

ऐसा नहीं है कि कश्मीर घाटी में हालात अब सामान्य हैं। अलबत्ता वहां जन आक्रोष धीरे धीरे और बढ़ रहा है जिसने अपना रूप भी लेना प्रारंभ कर दिया है। इसका फायदा वहां के कुछ अलगाववादी संगठन और राजनीतिक पार्टीयां उठा रही हैं जिन्होंने वहां के नौजवानों को फुस्लाकर अपने गुटों में शामिल कर लिया है और अपने फायदे के लिये छोटे छोटे मुद्दे बना कर उन्हें सड़को पर भारी हंगामा करने उतार देती हैं। अभी कुछ ही दिनों पहले ऐसे हालात सामने आये थे जहां पुलिस बल और ऐसे संगठनों से जुडे़ युवाओं के बीच झड़प देखी गई। यह भी बता दें कि ये राजनीतिक  पार्टीयां और अलगाववादी संगठन अपने अपने संगठनों से जुड़े यूवाओं को वेतन भी मुहैया करवाते हैं जिससे ये वहां युवाओं के बीच रोज़गार का साधन के रूप में भी अपनी जड़ बना रहा है। इन्हीं झड़पों के क्रम में कुछ ही महीनों के अंतराल के बाद एक और वाक्या सामने आया जो इतना बढ़ गया कि वहां कफर््यू लगानी पड़ी। इस दौरान भी झड़पों का सिलसिला कायम रहा जिसेमें कुछ लोगों की सीआरपीएफ की गोलियों से मौत हो गई। पिछली बार की तरह इस बार भी अलगाववादी संगठनों और हुर्रियत कानफ्रंस ने मौके का फायदा उठाने की कोशिश की। यहां यह भी बताते चलें कि हुर्रियत कानफ्रंस की आतंकी संगठनों से रिशते जग जाहिर हैं। उनकी इस कवायद का हिस्सा आतंकवाद को भीड़ में शामिल करना था जिससे मरने वालों की संख्या में और इज़ाफा हो सके। इस पहल से आतंकवाद को एक नया चेहरा देने की कोशिश थी जिससे मरने वालों की संख्या में भारी इज़ाफा किया जा सके और भारत की छवी पर दाग लगाया जा सके। इसका सीधा फायदा पाकिस्तान को मिलता जिससे वह एक बार फिर आरोप लगाने और आतंकवाद और कश्मीर जैसे अहम मुद्दों से भटका सके।

हलांकि कफर््यू हटा ली गई है लेकिन अब भी इससे गेरेज़ नहीं किया जा सकता कि घाटी के हालात अब भी काफी बिगड़े हुए हैं। लेकिन यहां पर सवाल इस बात का नहीं है कि हालात कितने दिनों तक सामान्य बने रहते हैं बल्कि ये है कि लोगों के दिलों में पल रहे तूफान को कैसे शांत किया जाये और उनके साथ हुए अन्याय के लिये उन्हें क्या न्याय मिले और कैसे सुनिश्चित किया जाये कि आगामी भविष्य में उनके साथ ऐसी कोई घटना नहींे होगी। ये सवाल सिर्फ उमर सरकार की नहीं है बल्कि इसके लिये कारगर कदल की पहल केन्द्र को करनी होगी। केन्द्र को यह सुनिश्चित करना होगा कि उसके द्वारा उठाये कदमों का पालन भी हो। यहां पर ज़रूरी होगा कि कोई भी राजनीतिक पार्टी इन्हें मुद्दा न बाये जिस पर वे अपनी रोटीयां सेकें। इन सब प्रयासों में मीडिया की भी भूमिका होनी चाहिये जिससे कि वह अपने कलम और कैमरों की सहायता से सरकार और अलगाववादी संगठनों पर अपनी पैनी नज़र बनाये रखे।

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