Monday, July 5, 2010

नामकरण प्रक्रिया

राजनीतिक हल्कों में जगहों, स्मारकों आदि के नाम बदलने का प्रचलन काफी पुराना है। इसी प्रचलन में कुछ ही दिनों पहले एक और जगह का नामकरण कर दिया गया। इस बार यह प्रक्रिया कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी के संसदिय क्षेत्र अमेठी के साथ दोहराई गई जिसे उ0प्र0 की मुख्य मंत्री और बसपा सुप्रीमो मायावती ने बदल कर छत्रपति शाहूजी महाराज नगर कर दिया है। राजनीति की शतरंज में मायावती अपनी इस चाल से जहां फूली नहीं समा रही होंगी वहीं सोनिया गांधी जरूर थोडी सोच विचार में पड़ी होंगी। सोच इस बात कि अब तक जहां वे अपनी सार्वजनिक सभाओं में ‘‘मेरे प्यारे अमेठी के निवासियों’’ कहा होगा वहीं अब उन्हें नाम लेने में थोड़ी असहजता महसूस होगी। अब उन्हें अपनी सार्वजनिक सभा में वहां के निवासियों को ‘‘मेरे प्यारे छत्रपति शाहूजी महाराज नगर’’ के निवासियों कहने के लिये ज़ुबान को अच्छी खासी कसरत करानी पड़ेगी।

लेकिन इस प्रचलन के इतिहास पर अगर नज़र ड़ाले तो कभी भी नामकरण का फायदा वहां की जनता को मिलाता नहीं दिखता। न तो इन सब चोचलेबाजी से उनकी आय बढ़ती है और न ही निगम की कार्यप्रणाली और कानून व्यवस्था में सुधार आता है। यानी कि जगह का नाम तो नया हो गया लेकिन बाकी सारी चीज़े जस की तस ही रहीं। अर्थात कुल मिला कर यही कहा जा सकता है कि किसी पार्टी विशेष के नेता या महापुरूष के नाम को अमर बनाने की कवायद में जनता का भला नहीं होता। जनता वहीं अपनी दो जून की रोटी की जुगत में पसीना बहाती रहती है और हमारे राजनेता अपनी कारगुज़ारी पर वातानुकूलित अपने दफतर में बैठ अपनी पीठ थपथपाते नहीं थकते।

स्थानों, स्मारकों आदि के नामकरण का इतिहास यह भी बताता है कि इसकी शुरूआत हमारी वर्तमान केंद्र सरकार और देश की सबसे बड़ी पार्टीयों में से एक कांग्रसे ने शिलान्यास रख कर की थी। तब से अब तक जिस राजनीतिक पार्टी ने चाहा उसने इसी भूमी पर अपनी अपनी ईमारत खडी कर नामकरण की पद्यति को आगे बढ़ाया और अब भी अपने अथक प्रयास में अग्रसर हैं। अगर ज़्यादा दूर की बात न कर के आपने शहर और देश की राजधानी दिल्ली की ही बात करें तो हम पायेंगे कि यह भी इससे अछूती नहीं है। दिल्ली का दिल कहे जाने वाले कनाट प्लेस का नाम बदल कर राजीव चैक और अंतरराष्ट्रिय हवाई अड्डे का नाम बदल कर इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रिय हवाई अड्डा कर दिया गया। इसका फायदा लोगों को तो कुछ नहीं मिला लेकिन नामों को लेकर शंशय कि स्थिति ज़रूर पैदा कर डाली है। लेकिन जैसे पुरानी चीज़ें अपना छाप छोड़ देती हैं और भुलाये नहीं भूलती वैसे ही कनाट प्लेस के साथ भी वैसा ही कुछ है। लोगों के ज़ुबान पर कनाट प्लेस कुछ ऐसा चढा है कि राजीव चैक का नाम किसी को याद भी नहीं है और अगर मैट्रो नहीं होती तो शायद कभी याद भी नहीं आता लेकिन सरकारी दफ्तरों में इसका नाम राजीव चैक दर्ज है।

यहां गौर करने वाली बात यह है कि इस तरह की राजनीतिक प्रयासों से पैदा होती व्योहारिक दिक्कतों सरकारी दफ्तरों में काम करने वालों के लिये भी परेशानी का सबब बनती रही है। वहीं कुछ नाम अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं जिन पर इस नामकरण का कू प्रभाव नहीं पड़ा है जैसे चैन्नै का हाई कोर्ट आज भी मद्रास हाई कोट के नाम से जाना जाता है, बम्बई या बाम्बे का मुंबई होने के बावजूद भी बाम्ब हाई कोट और बाम्बे स्टाक एक्सचेंज अपने पुराने नाम से ही जाने जाते हैं। यह हमारे राजनेताओं और सरकारों को सोचना चाहिये कि सिर्फ अपने राजनीतिक लालसा के लिये स्थानों, स्मारकों आदि बदलने से देश का कल्याण कभी नहीं होगा। देश का कल्याण होगा उन जगहों की सूरत बदलने से, लोगों को राज़गार मुहैया कराने से, उनके जीवन व्यापन के स्तर को उठाने से, शिक्षा आदि से। वरना कहीं इसी तरह के प्रयासों से प्रभावित होकर राज्य तेलंगाना की भांती अलग राष्ट्र की मांग करने लगेंगे और देश का विघटन हो जायेगा।

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