Tuesday, May 18, 2010


राजनीति का नया दाव - जाती आधारित जनगणना

मैं यू0 पी0 के एक शहर गोरखपुर से ताल्लुक रखता हूं। यह शहर बडा तो है मगर राजधानी लखनऊ की तरह अखबारों की सुर्खियों में नहीं रहता है। लेकिन राजनीतिक हल्कों में शहर को काफी तवज्जो मिलती है। यहां अक्सर लोग आपको घरों में आफिस के खाली वक्त में और चाय की दुकानों पर तो खास कर लोग राजनीति पर अपने विचारों का आदान प्रदान करते मिल जाते हैं। जब मैं छोटा था तब मैं ये सोचा करता था कि बडों को कोई और काम नहीं है क्या जो र्सिफ राजनीति पर बातें करते हैं पर जब मैं बडा हुआ तो कुछ मुद्दों पर मैंने भी खुद को राजनीति पर बात करते पाया। मैंने र्सिफ खुद को ही नहीं बल्कि अपने दोस्तों और अपने ही उम्र के कई और लडकों को राजनीति पर विचार विर्मश करते पाया।

अगर मैं र्सिफ शहर की बात न करके पूरे राज्य की बात करूं तो ये राज्य संप्रदायिक्ता में बंटा हुआ है। इसी वजह से राज्य में संप्रदायिक दंगे भडकाना कोई कठिन कार्य नहीं है। अक्सर ये दंगे राजनीतिक लाभ के लिये भडकाये जाते हैं। इस बात को लोग भी जानते हैं मगर सब के बावजूद दंगे की आग से खुद को बचा नहीं पाते हैं और इसी आवेग में आ कर वो कुछ ऐसा कर बैठते हैं जो वे नहीं करना चाहते थे या उल्हें नहीं करना चाहिए था। इस पर बाद में राजनीति भी खूब होती है और विपक्ष को बैठे बिठाये मौजूदा सरकार के खिलाफ एजेंडा मिल जाता है। इस एजेंडे को चुनाव के दौरान मुद्दा बनाकर खूब राजनीतिक रोटियां भी सेकी जाती हैं।

इस जाति आधारित राजनीति को और बढावा देने के लिये कुछ पार्टियों ने जाति आधारित जनगणना करवाने का प्रस्ताव सरकार के सामने रखा जिसे सरकार ने सिरे से खारिज कर दिया। इस पर पार्टी नेताओं ने विरोधा प्रर्दशन किया और संसद की कार्यवाही बीच में ही छोड कर बाहर चले आये। उन्होंने मीडिया के सामने बयान दिया कि जब देश में विभिन्न जाती के लोग रहते हैं ता जनगणना जाति के आधार पर क्यों नहीं हो सकती? जब यह एक वास्तविक्ता है तो सरकार इसे क्यों नहीं मान रही है?

देखा जाये तो अगर जनगणना जाति के आधर पर की जाये तो इससे ये जरूर मालूम पड जायेगा कि पूरे देश में और विभिन्न राज्यों में रह रहे नगरिक किस जाती में कितनी संख्या में हैं। इस जाति आधारित जनगणना से लोगों को तो लाभ होने की संभावना तो नगण्य है और सीधे तौर पर लाभ राजनीतिक पार्टियों को होगा जो सीधे साधे जाती आधारित राजनीति करती हैं। इसका सरल शब्दों में अर्थ ये निकलता है जो राजनीति पहले वोट बैंक के तौर पर होती थी वह अब जाति आधारित वोट बैंक पर केद्रिंत हो जायेगी। सपाट शब्दों में राजनीति भी अब और गणित आधारित हो जायेगी। अगर कोई पाटी यह देख रही है कि जीत के लिये उनका वोट बैंक कम पड सकता है तो वह चुनाव प्रचार में वोट खीचने हेतु कुछ और लोक लुभावने वादे कर सकती है। मस्लन मायावती की बहुजन समाज पार्टी जो दलितों की पार्टी मानी जाती है (जो धीरे धीरे दलितों के अलावा अब ब्रहमणों आदि पर भी केंद्रित होती जा रही है और जिसका परिणाम पिछले मुख्यमंत्री चुनाव में बसपा के जीत के तौर देखने को मिला) उसके पास सरकारी आंकडा होगा कि उ0 प्र0 में कितने दलित हैं और कितने अन्य जाति के लोगों की संख्या क्या है। मुलायम सिहं यादव की समाजवादी पार्टी जो मुस्लिम वोटों पर आधारित है उसके पास भी मुस्लिमों (अल्पसंख्यकों) की और अन्य जातियों से संबधित सरकारी दस्तवेज होगा। राम मंदिर और हिंदुत्व को मुद्दा बना चल रही भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) हिंदू वोट बैंक और कांग्रेस अपनी जाती आधारित राजनीति खेलेगी। इस तरह की राजनीति में एक विशेष वर्ग को सहूलियत मिलेगी और दूसरा वर्ग सौतेले व्योहार का भावना बढती जायेगी। इसका सीधा असर राज्य सरकारों की नीतियों पर भी पडेगा।

बहुत से नेता इस जाति आधारित जनगणना के पक्ष में एक दूसरे से हाथ भी मिला रहे हैं। वे चाहते हैं कि यह बिल सरकार द्वारा पास हो जाये ताकी उनके हाथ जाति आधारित चाभियां लग जाये और आवश्यक्तानुसार वे राजनीतिक लाभ के लिये इनका इस्तेमाल कर सकें। इससे कुछ ही दिनों में वे लोग जो सरकारी नीतियों से अछूते रह गये, त्रस्त हो जोयेंगे। धीरे धीरे ये भावना उनके अंदर बढती चली जायेगी और हो सकता है कि एक दिन तेलंगाना की तरह लोग जाति आधारित राष्ट्र की मांग कर दें। हमारे राजनेताओं को सोचना होगा कि लोगों को बांटने वाली नीतियों के बजाये उन्हें जोडने वाली बिल बनाये जाये। इन बिलों को भी अपने वेतन वृध्दि के बिल की तरह पूर्ण बहुमत से पारित किया जाये। इसी प्रकार से देश का विकास संभव है अन्यथा ऐसी स्थिति में देश को टूटते देर नहीं लगेगी। हो सकता है जिस देश को हम बडे र्गव से ‘भारत’ कह कर पुकारते हैं उसी राष्ट्र को ‘संयुक्त राष्ट्र भारत’ के नाम से न पुकारना पडे।

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