Saturday, May 1, 2010


इन्हें क्या कहें?

बचपन में जब हम स्कूलों मे गलतिया करते थे तो हमें हमारे अध्यापक सजा देथे। ये सजा कभी पिटई के तौर पर तो कभी मुर्गा बन कर या हाथ ऊपर करके। स्कूलों में सजा देना टीचरों कि आदत थी हमारी आदत सजा मिलने वाले काम करने की थी। सजा का मुख्य उद्देष्य होता था हमें सुधारना पर आज जब उन्हीं अध्यापकों से गलती हो जाये तो क्या करें? क्या इन्हें सजा मिलनी चाहिए? अटामिक एनर्जी रेगुलेटरी बोर्ड (एईआरबी) का तो ऐसा ही सोचना है। एईआरबी के अनुसार ये सजा के हकदार हैं और इन्हें सजा मिलेगी। दरअसल जिस कोबाल्ट 60 ने इतना कोहराम मचाया, सारे अखबारों और चैनलों की लीड स्टोरी बना रहा वो कोबाल्ट 60 डीयू (दिल्ली विष्वविद्दालय) के केमिस्ट्ररी लैब से मिला था। इसे केमिस्ट्ररी विभाग के पूर्व प्रो वी के र्षमा ने 1968 में इस पदार्थ को मंगवाया लेकिन उनके रिटायारमेंट के बाद किसी ने भी इस इस्तेमाल नहीं किया। वक्त बीतता गया और इसे उठा कर कमरे में बन्द कर दिया गया। डीयू प्रषान को जब इसकी याद आई तो उन्हें लगा कि अब ये किसी काम का नहीं रहा। उन्हांे ने इसके लिये एक कमेटी बनाई जिसने ये निर्णय लिया इसे कबाड में बेच देना चाहिये। कमेटी के इस फैसले पर डीयू प्रषासन ने अपनी मुहर लगा दी। उसके बाद ये अलग माध्यमांे से होता हुआ मायापूरी के स्कै्रप र्माकेट में पहुचा। मामले का खुलासा तब हुआ जब कोबाल्ट ने अपना असर दिखाना षुरू किया। रेडिएष का असर लोगों कि त्वचा पर दिखने लगा। मामले कि जब जांच हुई तो धीरे धीरे इसकी परते खुलती गई। मामले को तूल पकडता देख डीयू प्रषासन ने इसे अपनी नैतिक जिम्मेदारी मानी और पीडितों के लिये धन एकत्रित किये।

वो कहते है ना कि बात निकले गी तो दूर तक जायेगी, इस केस में भी कुछ ऐसा ही हुआ। कोबालट की बात थमी भी डीयू कि एक और नादानी सामने आ गई। करीब बीस साल पहले युनिवर्सिटी ने यूरेनियम 235 (15 से 20 किलो) जमीन में गड्ढा खोद कर दफना दिया था। अब मैं सोचता हू कि इसे क्या कहूं? एक ऐसा संस्थान जिसमें लोग अपने बच्चों को पढाना चाहते हैं वहा के अध्यापक ऐसा गैर जिम्मेदारा रवैया रखते हैं। इसके लिये डीयू प्राफेसरों का ये तर्क है कि उन्हें इसके लिये कोई विषेष टेªनिंग नहीं मिली। मगर प्राफेसरों के इस बयान से मुद्दे से पल्ला झाडने का इरादा लगता है बनस्पद जिम्मेदारी लेने का। जबकि यहा ध्यान देने वाली बात ये है कि एईआरबी ने इसके लिये दिषा निर्देष बना रखे हैं। अगर प्रोफसरों कि बात मान भी ली जाये कि उन्हें टेªनिंग नहीं मिली तो इसका मतलब ये समझा जाये कि वो बुद्दिजीवी वर्ग जिनके पास हमारे माता पिता हमें कुछ सीखने के लिये भेजते हैं वे ऐसी परिस्थितियों में अपने विवेक का इस्तेमाल नहीं करते हैं? और अगर ऐसा है तो इस्से होने वाली हानी का जिम्मेदार कौन होगा, सोचने वाली बात है।




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